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वारणतरण
कर सका। ऐसे विनाशीक राज्य में लुभानेवाली कथा इस भावसे करना कि सुननेवालोंका मन श्रावकाचा * रंजायमान हो, विकथा है। राज्यका वर्णन करते हुए युद्धादिका वर्णन आता है। राजाओंके कपट व मिथ्या वचन व मिथ्या आचरणका भी वर्णन आता है। ऐसी कथा सुनी जाने पर सुननेवालेका मन अनुमोदना करता हुआ हिंसानन्द व मृषानन्द रौद्रध्यानमें फँस जाता है। यदि देश या राज्यकी कथा पुण्यका फल दिखलानेके लिये व वैराग्य उत्पन्न करने के लिये की जावे, व राज्यभोगके दोषोंको बताने के लिये की जावे व परोपकारके हेतुसे की जावे, परिणामों में देश सेवाके भावको उत्पन्न करनेके लिये की जावे तो वह अशुभ भावसे नहीं की गई है किंतु शुभ भावसे की गई है इसलिये ऐसी राज्य कथा व देश कथा हिंसानंद व मृषानंद ध्यान न पैदा करके परोपकारभाव व प्रजाको पीड़ासे छुड़ानका भाव पैदा करनेवाली होगी। परंतु अशुभ भावसे की गई राज्य कथा परिणामों में चारों ही प्रकारका रौद्रध्यान पैदा कर देगी। उस रागमें फंसा हुआ प्राणी अशुभ कर्म बांधकर नर्क निगोदका पात्र होकर संसारमें दीर्घकाल घुमनेवाला होजायगा। जिस धर्ममें ऐसी विकथाकी पुष्टि है वह कुधर्म है।
लोक-भयस्य भयभीतस्य, अनृतं दुखभाजनं ।
भावः विकलितं याति, धर्मरत्नं न दिष्टते ॥ १०३ ॥ चौरस्य उत्पाद्यते भावः, अनर्थ सो संगीयते।
तिष्ठते अशुद्ध परिणाम, धर्मभावं न दिष्टते ॥ १०४॥ बन्यवार्य-(मयभीतस्य) भयसे डरे हुए मानवको (भयस्य) भय देनेवाला ( अनृतं ) मिथ्या वचन (दुखमाजनं ) दुःखका बढ़ानेवाला होता है। (भावः) भाव (विकलितं) आकुलित (याति) होजाता है (धर्मरत्नं) धर्मरूपी रत्न (न दिष्टते) नहीं दिखलाई पड़ता है। (चौरस्य भावः) चोर सम्बन्धी भाव ( उत्पाद्यते) उत्पन्न कराया जाता है (सो) वह (अनर्थ) व्यर्थ (संगीयते) कहा गया है। (अशुद्धपरिणाम) जिससे मलीन भाव (तिष्ठते) स्थिर होजाता है (धर्मभावं) धर्मभाव (न दिष्टते) नहीं दिखलाई पडता है।
विशेषार्थ-यहां चोर कथाकी ओर लक्ष्य देकर कहा गया है कि चोरोंकी कक्षाएं भय