SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वारणवरण ॥१०७॥ भीत प्राणीको और भी अधिक भयमें डालनेवाली होजाती हैं। साधारण रूपमें सर्व प्राणियों को अपनी सम्पत्ति के सम्बन्धमें यह भय लगा रहता है कि कहीं कोई चोर न लेजावे । और जब उनको ऐसी विकथाएं सुननेको मिलें जिनमें चोरोंने माल चुराया हो तब उनके मनमें भय अधिक हो जाता है । यह चोर कथा यद्यपि सबी भी हो तौभी इसे मिथ्या कहा गया है। क्योंकि जो वचन अहितकारी हो, दुःखका बढानेवाला हो, कषायकी वृद्धि करता हो वह सत्य होनेपर भी निरर्थक है इसीलिये मिथ्या है। जैसे- किसीके पुत्रका वियोग होगया है । इसे कुछ काल बीत गया है फिर भी किसी ने उसके पुत्रकी स्मृति इन शब्दों में करादी जिससे उसके भीतर शोक उमड आये तो उसका यह सत्य वचन भी मिथ्या ही है क्योंकि वृथा ही परिणाम विचलित व विह्वल कराने वाला वह वचन होगया । श्री पुरुषार्थसिद्धयुपायमें श्री अमृतचन्द्र आचार्यने अप्रिय वचनका मिथ्यां वचनमें गिना है और उसका लक्षण यह बताया है भरतिकरं भीतिकरं खेदकरं नैरशोककळड्करं । यदपरमपि तापकरं परस्य तत्सर्वमप्रियं ज्ञेयं ॥ ९८ ॥ मावार्थ — जो वचन दूसरेके मनमें अरति भाव पैदा करदें उसे कुछ सुहावे नहीं ऐसा उदास भाव करदें, भयको पढादे, खेद करदे, वैर भाव किसीकी तरफ उत्पन्न करदे, शोक में डालदे, लड़ाई झगडा करादे या और भी किसी तरहका दुःख पैदा करादे वह सर्व वचन अप्रिय जानना योग्य है । इसी लिये चोरोंकी कथा वृथा हो डरानेवाली होती है, परिणामों में मलीनता व घबड़ाहट आ जाती है तब शुद्ध आत्मीक भाव रूपी रत्न नहीं सूझता है, धार्मिक भाव नहीं दिखलाई पडता है । परिग्रह में ममता ही भयके उपजनेका कारण है । यह चोर कथा परिग्रहकी ममता के साथ २ भयको बढ़ा देती है । उस समय यह सम्यक्त भाव कि मेरा परिग्रह नहीं है, यह सब पर है, छूटनेवाला है, मेरी आत्मीक ज्ञानदर्शन सम्पदा ही मेरी है, नहीं रहता है। इसी कारण यह चोर कथा विकथा है, अनर्थकारी है तथा धर्मरूप न होकर कुधर्म है। आरति रौद्र संयुतं । संसारे दुःखदारुणं ॥ १०४ ॥ श्लोक - चौरस्य भावना दिष्टा, स्तेयानंद आनंद, श्रावकार ॥१०७॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy