________________
वारणतरण
श्रावकाचार
॥१०॥
जिससे भक्ष्य अभक्ष्यका विचार भी जाता रहे और आहारके भीतर लालसा बढ जावे सो भोजन कथा है। अब्रह्मके सिवाय चार इंद्रियोंके भोगकी कथा भी आहार कथामें गर्मित है। देश में क्या २ सुन्दरता है, किस तरह सुन्दर सडकें व मकान व गली आदि बनती हैं, कौनसा देश षडा सुहावना देखने योग्य खेल, कूद, तमाशेसे भरा हैं, कौनसा देशविषयभोगकी सामग्री आदिसे भरपूर है, ऐसी कथा इस तरह करना जिससे कहनेवाले सुननेवालेके परिणाममें देश दर्शनका राग बढ जावे-या चोरोंकी ऐसी कथाएं करना जिसके सुननेसे चोरोंसे भय पैदा होजावे सो सब देश कथा याचोर कथा है। राजाओंके धन, सम्पदा, सेना, स्त्री आदिकी, उपवन आदिकी, आभूषण आदिकी, ऐसी कथा करना जिससे
राज्यभोगमें तृष्णा बढ जावे सो सब राज कथा है, जिस धर्मके वर्णनसे व पालनसे इन कथाओंसे ४ राग बढ जावे, सो कुधर्म है। कहीं २ धर्मके नामसे सैकड़ों मिठाइया बनाकर खानपान करके, नाच
कूद करा करके, अतर फुलेल, गुलाल अवीर लगा करके, भांग आदि नशोंको पान करके, हमने धर्म साधा ऐसा समझ लेते हैं, सो सब संसार राग वर्द्धक अधर्म है। जिन २ धर्मकी क्रियाओंसे इंद्रियोंका संयम न रखकर इंद्रियों में लीनता हो, क्रोधादि कषाय दमन न होकर उनकी वृद्धि हो वह धर्म सब अधर्म है। जिस धर्मसे मिथ्यात्वका राग बढ जावे व मिथ्यात्वमें आनन्द मनाया जावे जैसे-कुदेवोंकी व कुगुरुओंकी भक्तिमें धनादि खर्च करके ही आनन्द मनाया जावे सो सब अधर्म कहा जाता है।
श्लोक-विकहा प्रमाणं असुहं, नंदितं असुहभावना ।
ममता कामरूपेण, कथितं वर्णविशेषितं ॥ ९९ ॥ अन्वयार्थ (विकहा प्रमाणं) विकथा सम्बन्धी जो ज्ञान है वह (अपुहं ) अशुभ है। (नंदितं) विकथाओंमें आनन्द मानना (असुहभावना) अशुभ भावना है। (कामरूपेण ) भोगोंकी इच्छाके रूपसे (वर्णविशेषितं ) अनेक तरहके भेदोंकी या वर्णनकी विशेषतासे (कथित) विकथाओंका कहना (भमता) उनमें ममता बढा लेना है।
विशेषार्थ-ऊपर लिखित चार विकथाओंको विकथा रूपसे कहने व विचारनेकी कला अशुभ विद्या है। बहुतोंको कहानी, किस्से, उपन्यास रचने की एक खास चतुराई या विद्या आती है
॥१०॥