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________________ - मो.मा होय । ताते उपदेशविर्षे एक अर्थको मुड़ करें। परंतु सर्व जिनमतका चिंह स्थाद्वाद है। प्रकाश सो 'स्यात्' पदका अर्थ 'कथंचित्' है । ताते उपदेश होय ताको सर्वथा न जानि लेना। उप-10 देशका अर्थकों जानि तहां इतना विचार करना, यह उपदेश किस प्रकार है,किस प्रयोजन लिएं है, किस जीवको कार्यकारी है । इत्यादि विचार करि तिस अर्थका ग्रहण करे, पीछे अपनी दशाविषे जो उपदेश जैसे आपको कार्यकारी होय, तिसको तेसे आप अंगीकार करें । अर जो उपदेश आनने योग्य ही होय, तौ ताकी यथार्थ नानि ले । ऐसें उपदेशकी फलको पावे । यहां कोई कहे--जो तुच्छबुद्धि इतना विचार न करि सके, सो कहा करै । Hताका उत्तरम जैसे व्यापारी अपनी बुद्धि के अनुसार जिसमें समझ, सो थोरा वा बहुत व्यापार को। परंतु नफा टोटाका ज्ञान तो अवश्य चाहिए। तैसे विवेकी अपनी बुद्धिके अनुसारि । जिप्समें समझे, सो थोरा वा बहुत उपदेशकों है, परंतु मुझकी यह कार्यकारी है, यह कार्यकारी नाही, इतना तो ज्ञान अवश्य चाहिए । सो कार्य तो इसना है-यथार्य श्रद्धानज्ञानकरि रागादि घटावना । सो यह कार्य अपने सधे, सोई उपदेशका प्रयोजन । है । विशेष ज्ञान न होय, तो प्रयोजनकों, तो भूले नाहीं । यह तो सावधानी अवश्य । चाहेए । जिसमें अपना हितकी - हानि होय, ते उपदेशका अर्थ समझाना
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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