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वारणतरण
॥२४०॥
मध्यलोक स्पष्ट दिखलाई पडता है । ( षट्कमल) छः पत्ते के कमलके भीतर ( ति अर्थ ) तीन तत्वोंके भीतर ( सम्यग्दर्शनं जोयं ) सम्यग्दर्शन दिखलाई पडता है ।
विशेषार्थ —— सम्यग्दृष्टी छः द्रव्योंके स्वरूपको यथार्थ श्रुतज्ञानके बलसे जानता है और इस लोककी सर्व रचना छः द्रव्योंसे बनी हुई है । इसलिये वह इस लोकको भी जानता है अथवा वह श्रुतज्ञान द्वारा नारकी, तिर्यंच, मानव तथा देव इन चार गतियोंके स्थानोंको जानता है । कहां २ नर्क व स्वर्ग है, कहां २ जम्बुद्वीप आदि है, कहां २ अकृत्रिम चैत्यालय है, कहां अहमिंद्र लोक है, कहा लोकांतिक देव रहते हैं । लोकके ऊपर सिद्धक्षेत्र है जहां अनन्त सिद्ध रहते हैं । संस्थान विचय धर्मध्यानके द्वारा तीन लोकका स्वरूप जानता है । वैराग्यभावसे किसीसे रागद्वेष नहीं करता है । उसका अनुराग अपने शुद्ध स्वभावसे है ।
कमल व ति अर्थका भावार्थ स्पष्ट नहीं है, जो समझ में आया वह लिखा गया है । हृदयस्थान में छः पत्तोंका कमल बनाकर उनके ऊपर ॐ ह्रां ह्रीं हूँ हौं हा इन छः बीजाक्षरोंके आलम्बनसे विचारते हुए सम्यग्दर्शन के प्रभाव से शुद्धात्माका अनुभव होता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्पञ्चारित्र इन तीन तत्वोंके भीतर मुख्यता सम्यग्दर्शनकी झलकती है क्योंकि ज्ञान और चारित्रको सम्यक्पना सम्यग्दर्शन के प्रभावसे ही प्राप्त हुआ है । वास्तवमें सम्यग्दर्शन ऐसी ज्ञान चक्षु है जिसके द्वारा देखते हुए सर्व पदार्थ ठीक २ जैसे हैं वैसे दिखलाई पड़ते हैं । सम्यग्दृष्टिको छः द्रव्योंके गुणपर्यायके कार्यों में पूर्ण विश्वास है । उसको किसी भी क्रियामें आश्चर्य नहीं मालूम होता है । वह सम्यग्ज्ञानको रखता हुआ परम संतोषी है । अनेक प्रकारके धर्मध्यानके द्वारा जिनका कथन पहले किया जाचुका है सम्यग्दृष्टि अपने आत्माके अवलोकनका अभ्यास रखता है । वह आत्मरसका पिपासु होरहा है । जिस तरह बने आत्मानन्दका स्वाद लेता है ।
श्लोक - दर्शन यत्र उत्पादते, तत्र मिथ्या न दृष्टते ।
कुज्ञानं मलश्चैव त्यक्तं योगं समाचरति ॥ २३९॥
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अन्वयार्थ – (यत्र दर्शन उत्पादन्ते ) जहां सम्यग्दर्शन उत्पन्न होजाता है ( तत्र मिथ्या न दृष्टते ) वहां
श्रावकाचार
॥१४०॥