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वारणतरण हिंसादि पांच पाप, प्रमाद व कषायके सम्बन्धसे आठ कर्म योग्य पुद्गल वर्गणा आती हैं। शुभ मन,
४श्रावकाचार ४ वचन, कायकी क्रियासे मुख्यतासे पुण्य कर्मका, अशुभ मन, वचन, कायकी क्रियासे पाप कर्मका ॥२९॥
आस्रव होता है।
बंध-आए हुए कर्म पुद्गलों में तुर्त चार प्रकारका बंध पड जाता है। प्रकृति-ज्ञानावरणादि * कर्मरूप स्वभाव पडना । २ प्रदेश-कितनी संख्या किस किस कर्मकी पंधी। ३ स्थिति-काँमें मर्यादा.* कालका पडना । ४ अनुभाग-कर्म तीन या मंद फल देंगे ऐसा रस पहना।
संवर-कर्मों के आनेको रोकना-मिथ्यात्वके रोकनेको सम्पग्दर्शन प्राप्त करना, पांच पापोंको र छोडकर अहिंसादि पांच व्रतोंको पालना, प्रमादको रोकनेको अप्रमादभाव रखना, कषायको जीत.. नेके लिये वीतरागका अभ्यास करना, मन वचनकायको थिर रखना ये सब कारण कर्मोंके रोकनेके हैं।
निर्जरा-कर्म अपने समयपर पकते हैं तब झडते हैं, यह सविपाक निर्जरा है। आरमध्यानादि वीतराग भावसे कर्मको उदयकालके पहले झाड डालना अविपाक निर्जरा है।
मोक्ष-सर्व कमोसे छूटकर शुद्ध आत्मा होकर लोकशिखरपर सिद्धक्षेत्रों में अपने स्वरूप में सदाके लिये विराजमान रहना।।
नौ पदार्थ-सात तत्वों में पुण्य कर्म व पाप कर्म मिलानेसे नौ पदार्थ होजाते हैं। ये दोनों पदार्थ आस्रव व बंधमें गर्भित हैं तथापि विशेषताके लिये पृथक् गिनाया है।
इन सबमें व्यवहारनयसे जीव, संवर, निर्जरा, मोक्ष चार ग्रहण करने योग्य हैं जब कि निश्च-४ यनयसे एक अपना शुद्ध आत्मा ही ग्रहण करने योग्य है। इस तरह श्रद्धान करके जब आत्माका ॐ मनन किया जाता है तब कुछ कालके अभ्याससे अनन्तानुवन्धी चार कषाय और मिथ्यात्व उपशम , होनेसे उपशम सम्यग्दर्शन पैदा होजाता है। यही शुद्ध आत्मानुभव करानेवाला धर्मतीर्थ है।
श्लोक-दर्शनं ऊर्व अधं च, मध्यलोकं च दृष्ठते ।।
षड् कमलं ति अर्थ च, जोयं सम्यदर्शनं ।। २३८॥ अन्वयार्थ (दर्शनं ) सम्यग्दर्शनके प्रभावसे ( ऊर्ध्व अथ च मध्यलोकं दृष्टते ) ऊर्व लोक अबोलोक व
M॥२३९॥