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________________ मो.मा. 1. संसारदशाविषै सुख तो सर्वथा है ही नाही, दुख ही है । परंतु काहूकै कबहू बहुत दुख प्रकाश || हो है, काहूकै कबहू थोरा दुख हो है । सो पूर्व बहुत दुख था, वा अन्य जीवनिकै बहुत दुख पाइए है, तिस अपेक्षा थोरे दुखवालेकौं सुखी कहिए । बहुरि तिस ही अभिप्रायतै थोरे | दुखवाला आपकौं सुखी माने है । परमार्थतें सुख है नाहीं । बहुरि जो थोरा भी दुख सदा | काल रहे है, तो वाकों भी हित ठहराइए, सो भी नाहीं । थोरे काल ही पुण्यका उदय रहै,M तहां थोरा दु - हो है, पीछे बहुत दुख हो जाय । तातें संसार अवस्था हितरूप नाहीं । जैसें || काहूकै विषम ज्वर है, ताकै कबहू असाता बहुत हो है, कबहू थोरी हो है । थोरी असाता || होय, तब वह भापकों नीका माने । लोक भी कहें-नीका है । परंतु परमार्थतें यावत् ज्वरका || सद्भाव है, तावत् नीका नाहीं है । तैसें संसारीकै मोहका उदय है । ताके कबहू भाकुलता, बहुत हो है, कबहू थोरी हो है । थोरी आकुलता होय, तब वह आपकों सुखी माने, लोक भी। कहें-सुखी है । परमार्थ यावत् मोहका सद्भाव हैं, तावत् सुखी नाहीं । बहुरि संसार दशाविषै भी आकुलता घटे सुखी नाम पावै है । आकुलता बधे दुखी नाम पावै है । किछू बाह्य । सामग्रीत सुख दुख नाहीं। जैसें काहू दरिद्रीकै किंचित् धनकी प्राप्ति भई । तहां किछु | आकुलता घटनेते वाकों सुखी कहिए अर वह भी आपकौं सुखी माने । बहुरि काहू बहुत | धनवान्कै किंचित् धनकी हानि भई, तहां किछू आकुलता बधनेते वाकौं दुखी कहिए । अर ४७१
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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