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________________ मो.मा. भाव प्रगट करि केतेक काल पीछे च्यारि अघाति कर्मनिका भी भस्म होते परमऔदारिक प्रकाश || शरीरकौं भी छोरि ऊर्ध्वगमन स्वभावते लोकके अग्रभागवि जाय विराजमान भये । तहां || 1 जिनकै समस्त परद्रव्यनिका संबंध छूटनैतें मुक्त अवस्थाकी सिद्धि भई, बहुरि जिनके चर्म-11 शरीरतें किंचित् ऊन पुरुषाकारवत् आत्मप्रदेशनिका आकार अवस्थित भया, बहुरि जिनकै। प्रतिपक्षी कर्मनिका नाश भया तातें समस्त सम्यक्त्व ज्ञान दर्शनादिक आत्मीक गुण संपूर्णपने । स्वभावकों प्राप्त भये हैं, बहुरि जिनकै नोकर्मका संबन्ध दूर भया तातें समस्त अमूर्तत्वादिक । आत्मीकधर्म प्रगट भये हैं । बहुरि जिनकै भावकर्म का अभाव भया तातें निराकुल आनन्दमय | शुद्धस्वभावरूप परिणमन हो है । बहुरि जिनका ध्यानकरि भव्य जीवनिकै स्वद्रव्य-परद्रव्यका । अर उपाधिक भाव स्वभावनिका विज्ञान हो है, ताकरि सिद्धनिकै समान आप होनेका साधन | हो है। तातें साधनयोग्य जो अपना शुद्धस्वरूप ताके दिखावनेकौं प्रतिबिंब समान हैं । बहुरि ।। जे कृतकृत्य भये हैं तातें ऐसे ही अनंत कालपर्यंत रहें हैं ऐसे निष्पन्न भये सिद्ध भगवान तिनकों हमारा नमस्कार होहु । अब आचार्य उपाध्याय साधुनिका स्वरूप अवलोकिये है, जे विरागी होय समस्त परिग्रहकों त्यागि शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म अङ्गीकार करि अंतरंग विषै तो तिस शुद्धोपयोगकरि आपकों आप अनुभवै हैं परद्रव्यविषै अहंबुद्धि नाहीं धारै हैं । बहुरि अपने ज्ञानादिकस्वभावनिहीकों अपने मान हैं। परभावनिविषै ममत्व न करै हैं। ORIGMOONMOHIBGookifokECrookEETookDCPROREGAORECRoo-Crookachoroprooo-EcookGOOTXCMONOMICROOMSAtroce
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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