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________________ मो.मा. प्रकाश विचारकी मुख्यता है । जो ज्ञानविषै जीवादितत्त्वनिक विचारै, ताकौ तत्वश्रद्धानी कहिए । ऐसें मुख्यता पाइए है। सो ए दोऊ काहू जीवके सम्यक्त्वको कारण तौ होंय, परन्तु इनका सद्भाव मिथ्यादृष्टीकै भी संभवे है । ताते इनको व्यवहार सम्यक्त्व कला है । बहुरि आपपरका श्रद्धानविषै वा आत्मश्रद्धानविषै बिपरीताभिनिवेशरहितपना की मुख्यता है । जो आपापरका भेदविज्ञान करै वा अपने आत्माको अनुभवे, ताकै मुख्यपनै विपरीताभिनिवेश न होय । तातै भेदविज्ञानीकौं वा आत्मज्ञानीको सम्यग्दृष्टी कहिए है । ऐसें मुख्यताकरि आपापरका श्रद्धान वा आत्मश्रद्धान सम्यग्दृष्टीहीके पाइए है । तातैं इनको निश्चय सम्यक्त्व का, सो ऐसा कथन मुख्यताकी अपेक्षा है । तारतम्यपनै ए च्यारों आभास मात्र मिथ्यादृष्टीकै होंय, सांचे सम्यग्दृष्टीकै होंय, । तहां आभासमात्र हैं, सो नियम विना परंपरा कारण हैं । अर ए सांचे हैं, सो नियमरूप साक्षात् कारण हैं । तातैं इनको व्यवहाररूप कहिए । इनके निमित्ततैं जो विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धान भया, सो निश्चय सम्यक्त्व है, ऐसा जानना । बहुरि प्रश्न - - केई शास्त्रनिविषै लिखें हैं- - आत्मा है, सो ही निश्चय सम्यक्त्व है, और सर्व व्यवहार है। सो कैसे है । ताका समाधान, - विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धान भया, सो आत्माहीका स्वरूप है । तहां अभेदबुद्धिकर आत्मा र सम्यक्त्वविषै भिन्नता नाहीं । तातें निश्चयकरि आत्माहीकों सम्यक्त्व कह्या 1 *100/1500-1000-1200-13 ५१२
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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