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________________ 00003 काश मो.मा.1 है । सो यहां विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धान सो तो निश्चय सम्यक्त्व है, अर देवगुरुधर्मादिकका श्रद्धान है, सो व्यवहार सम्यक्त्व है । ऐसें एक ही कालविर्षे दोऊ कालविषै दोऊ सम्यक्त्व पाइए है । बहुरि मिथ्यादृष्टी जीवकै देवगुरुधर्मादिकका श्रद्धान आभास मात्र हो है । अर याकै श्रद्धानविषे विपरीताभिनिवेशका अभाव न हो है। जाते। यहां निश्चय सम्यक्त्व तो है नाहीं, अर व्यवहार सम्यक्त्व भी आभासमानहै । जाते याकै देवगुरुधर्मादिकका श्रद्धान है, सो विपरीताभिनिवेशके अभावकों साक्षात् कारण भया नाहीं।। कारण भए विना उपचार संभवे नाही,। तातें साक्षात् कारण अपेक्षा व्यवहार सम्यक्त्व भी यान संभव है। अथवा याकै देवगुरुधर्मादिककाश्रद्धान नियमरूप हो है । सो विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धानकों परंपरा कारणभूत है । यद्यपि नियमरूप कारण नाही, तथापि मुख्यपने कारण हैं। बहुरि कारणविर्षे कार्यका उपचार संभव है । तातें मुख्यरूप परंपरा कारण अपेक्षा मिथ्यादृष्टीके भी व्यवहार सम्यक्त्व कहिए है । यहां प्रश्न-जो केई शास्त्रनिविषे देवगुरुधर्मका। श्रद्धानकौं वा तत्वश्रद्धानकों तौ व्यवहार सम्यक्त्व । कह्या है, अर आपापरका श्रद्धानकौं वा । केवल आत्माके श्रद्धानकों निश्चय सम्यक्त्व कह्या है 'सो कैसे हैं, । ताका समाधान,___ देवगुरुधर्मका श्रद्धानविणे प्रवृत्तिको मुख्यता है। जो प्रवृत्तिविषे भरहंतादिकों देवादिक माने, औरकों न मानें, सो देवादिकका श्रद्धानी कहिए हैं। अर तत्त्वश्रद्धानविर्षे तिनके । ५११ &0000000E6Ordasoopcorgeoggeoloradoorccoomikoolasorrowoooooooooo
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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