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________________ श्रा ॥.५॥ आठ मूलगुण+चार प्रकारका दान+सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रकी सेवा+रात्रि भोजन त्याग+नामा y पानी पीना+समताभावके लिये जिनागमका मनन करना । यह १८ क्रियाएं पालता है। श्लोक-सम्यक्तं शुद्ध धर्मस्य, मूलं गुणं च उच्यते । दानं चत्वारि पात्रं च, साधं ज्ञानमयं ध्रुवं ।। १९९ ॥ दर्शन ज्ञान चारित्रै, विशेषितं गुणपूजयं । अनस्तमितं शुद्ध भावस्य, फासूजल जिनागमं ॥२०॥ अन्वयार्थ—(शुद्ध धर्मस्व सम्यक्तं) शुद्ध आस्मीक धर्मकी श्रद्धा रखनेवाले जीवके (मूलं गुणं च उच्यते) र आठ मूल गुण कहे जाते हैं (पात्रं च चत्वारि दानं ) पात्रोंको वह चार प्रकार दान देता है। उस दानको वह (ध्रुवं ज्ञानमयं साफ) निश्चल ज्ञानमय भावसे विवेक सहित देता है। (दर्शन ज्ञान चारित्रैः विशेषितं ) वह सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रसे विभूषित होता है, (गुणपूमय) रत्नत्रयपारी महात्माभोंकी पूजा करता है, (शुद्ध भावस्य ) निर्मल भावसे श्रद्धा पूर्वक (अनस्तमितं ) रात्रिको भोजन नहीं करता है (जिनागम फासूजक ) जिनागमके अनुसार छमा पानी काममें लेता है। विशेषार्थ-अविरत सम्यग्रष्टीके अप्रत्याख्यान कषायका उदय होता है जिससे अतीचार रहित स्याग नहीं कर सकता है तथापि जितना जितना कषाय मंद होता जाता है वह चारित्रको अंगीकार करता जाता है। शुज सम्यग्दर्शनका धारी तो वह होता ही है। आठ मूलगुणों में पांच बदम्बर फल व मदिरा, मांस, मधुका वह सेवन नहीं करता है। तीन प्रकार पात्रोंको भक्तिपूर्वक आहार, औषधि, अभय व ज्ञान दान देता है, दयाभावसे प्राणी मात्रको चार प्रकारका दान देता है। दानमें विवेकसे काम लेता है तथा बदले में पुण्यकी व कोई लौकिक लाभकी इच्छा नहीं करता है, केवल परोपकार भावसे दान करता है। सम्यग्दर्शनका आचरण व सम्यग्ज्ञानका आचरण यह है कि वह नित्य जिन भक्ति, गुरु सेवा, स्वाध्याय, सामाषिकमें लीन रहता है। जो रमैनपके पारी उनकी भक्ति करता है। गुणवानोंकी पूजा करता है, रात्रिको भोजन हिंसाकारी समझकर अपनी स्थितिके अनुसार छोडनेका उद्यम करता है। खाच (जिससे पेट भरे), स्वाथ (पान इलायची), लेख (चाटनेकी ROR
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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