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तीन गुति-मनको, बचनको व कायको वश रखना, मध्यम लिंगवाले श्रावक इन ५३ क्रियाओंको भलेप्रकार पालते हैं, मुनि सम्बन्धी क्रियाओंका यथाशक्ति अभ्यास करते हैं।
श्लोक-जघन्यं अव्रतं नाम, जिन उक्तं जिनागमं ।
साध ज्ञानमयं शुद्धं, किया दस अष्ट संजुतं ॥ १९८ ॥ अन्वयार्थ-(अपन्य ) जघन्य लिंग या पात्र (अबतं नाम) अविरत सम्यग्दष्टी है जो (निन उक्तं) . जिनेन्द्र के को हुए (मिनागमं जैन आगमके ( साधु ) अनुसार (ज्ञानमयं शुद्ध) ज्ञानमय शुर आत्माका अनुभव करता है (किया दस अष्ट संजुतं ) तथा अठारह क्रिया सहित होता है।
विशेषार्थ-यहां चौथे गुणस्थानवर्ती पात्रका कथन करते हैं कि वह जैन शाखाका व जैन शासमें कहे हुए जीवादि तत्वोंका हढ श्रद्धालु होता है व उसीके अनुसार अपने आस्माका शुद्ध निश्वयनयसे सिडवत् शुख अनुभव करता है, ज्ञान वैराग्यमें तन्मय रहता है। यद्यपि वह अविरति तथापि पा प्रवामें परम साधु है। इसलिये आठ बाहरी लक्षणोंसे विभूषित है। जैसा कहा है
सक्यो जिम्वेओ निंदा गरहा उत्समो भली । अणुकम्मा वच्छलां गुणटु सम्पत्त जुत्तस्स ॥ भावार्थ-उसमें संवेग गुण होता है जिससे वह जैनधर्मसे गार प्रीति रखता है। धार्मिक कायोंको बडे उत्साहसे करता है। निर्वेद गुणके कारण संसार शरीर भोगोंसे परम उदासीन होता है, बिलकुल वीतराग रहना चाहता है तथापि पूर्वपर कषायके उदयसे रह नहीं सक्का के कपाय. युको संसारीक काम करता है। इस अपनी निर्मलताकी निन्दा दूसरों के सामने करता रहता है तथा अपने मन में भी करता रहता है यह गर्दा है। उपशम गुणके द्वारा शांत चित्तोता है। आकु. बतामय घबडाया हुआ परेशान नहीं रहता है, भक्ति गुणके कारण देव शास्त्र गुरुकी सबी भक्ति करता है, गुणवामोंकी सेवा करता है, अनुकम्पा गुणसे बडा दयावान होता है, सर्व जीवमात्रके साथ प्रेम करता हुभा उनकी रक्षा चाहता है। वात्सल्य गुणसे साधर्मी भाई व बहनोंसे गोवत्सके समान प्रेम करता है, उनके लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर कर डालता है। ऐसा गुणवान सम्यक्ती पचपि भतीचार रहित बतोंको पालनहीं सक्ता है तथापि इन वेपन क्रियाओं से अठारह क्रियाओंको पाखता है, या पालनेका यथाशक्ति उद्योगीराता है। आगेके दो लोकोंसे वे प्रगट कही गई।