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________________ २.६॥ औषधि आदि), पेय (पीनेका पानी आदि) इन चारोंको चकमको यथाशक्ति छोडनेका अभ्यासी होता है। यदि शक्य होता है तो रात्रिको जल भी त्याग देता है, अशक्य होता है तो जिस तरह निराकुलता रहे वैसा वर्तन करता है। अभी इसके अविरत भाव है।यास मात्र है। नियमसे रात्रि भोजनका त्याग व्रती अवस्थामें छठी प्रतिमा तकमें पूर्ण होजाता है, छठी प्रतिमाके नीचे यथाशक्ति उद्यम है, स्वच्छंदता नहीं है, लाचारी हीमें इस क्रिया में कमी रखता है। पानी भलेप्रकार छान करके पीता है। छानने की क्रिया ठीक कराता है या करता है, जानता है कि पानी में बहुत प्रस जीप होते हैं। अपनी शक्तिके अनुसार बचानेका उपाय यही है कि जलको छानकर काममें लाया जावे व जीवानी जल स्थानक में पहुंचाई जावे । इस क्रियाका भी यह अभ्यासी मात्र होता है। किसी देश काल में ठीक नहीं पाल सके तो मनमें म्लानि रखता है। अठारहवीं क्रिया ५३ क्रियाओंमेंसे एक समताभाव है उसका पालक होता है। सम्यक्चारित्रमें यह पांच अणुव्रतोंका स्थूल अभ्यास करता है, संकल्प करके वृथा हिंसा नहीं करता है, असत्य नहीं बोलता है, चोरी नहीं करता है, परस्त्री सेवन नहीं करता है, परिग्रहकी अधिक लालसा नहीं रखता है। इन पांच अणुव्रतोंका भी अभ्यास मात्र रखता है। एक श्रद्धालु जैनीको कैसा होना चाहिये यह बात इन अठारह क्रियाओंमें समावेश होजाती है। यदि कोई साधारण जैनी इन बातोंको पाले तो वह नमूनेदार श्रावक चौथे दरजेका होजायगा। श्लोक-एतत्तु क्रिया संजुक्तं, शुद्ध सम्यग्दर्शनं । प्रतिमा व्रत तपश्चव, भावना कृत सार्धयं ॥ २०१॥ अन्वयार्थ (शुद्ध सम्यग्दर्शनं ) निर्मल सम्यग्दर्शनका धारी (एतत्तु क्रिया संजुक्तं) इन अठारह क्रिया. ओंको पालता हुआ (सायं) इनके साथ (प्रतिमा व्रत तपश्चैव भावना कृत ) ग्यारह प्रतिमा, बारह व्रत और बारह तपकी भावना करता रहता है। विशेषार्थ-उक्त त्रेपन क्रियाओंमेंसे ऊपर लिखी अठारह क्रियाओंको पालता हुआ शेष पैंतीस क्रियाओंकी भावना भाता है। यह विचार रहता है कि मेरे कषाय कब मंद हों, जो मैं उनको VIRON
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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