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________________ मो.मा. प्रकाश 30500०००० 310 35 s करना कैसे संधै वह तो उपादेय भई । बहुरि जो समवायसंबंध है तो जैसें अनि उ स्वभाव है मैं ब्रह्मका मायास्वभाव ही भया । जो ब्रह्मका स्वभाव है ताका निषेध करना कैसें संभवै । यह तौ उत्तम भई । बहुरि वह क है है कि- ब्रह्म तो चैतन्य है माया जड़ है सो समवायसंबन्धविषै ऐसे दोय स्वभाव संभवें नाहीं । जैसें प्रकाश और अंधकार एकत्र कैसें संभवें ? बहुरि वह क है है, - मायाकरि ब्रह्म आप तौ भ्रमरूप होता नाहीं ताकी मायाकरि जीव भ्रमरूप हो है । ताक कहिए है, जैसे कपटी अपने कपटकों आप जानै सो आप भ्रमरूपं न होय वाके कपटकरि अन्य भ्रमरूप होय जाय । तहां कपटी तौ वाहीकौं कहिए जानै कपट किया । ताकै कपटकरि अन्य भ्रमरूप भए तिनिकों तौ कपटी न कहिए । तैसें ब्रह्म अपनी मायाकों आप जानै सो आप तौ भ्रमरूप न होय वाकी मायाकरि अन्य जीव भ्रमरूप होय हैं । तहां मायावी तौ ब्रह्मकों कहिए ताकी मायाकरि अन्य जीव भ्रमरूप भए तिनकौं मायावी काहेकौं कहिए । बहुरि पूछिए है कि वे जीव ब्रह्मतैं एक हैं कि न्यारे हैं । जो एक हैं तो जैसें कोऊ आप ही अपने अंगनिकों पीड़ा उपजावै तौ ताकौं बाउला कहिए है । तैसें ब्रह्म आप ही आप भिन्न नाहीं ऐसे अन्य जीवनिकों मायाकरि दुखी करै है तौ यार्कों कहा कहोगे, बहुरि जो न्यारे हैं तो जैसे कोऊ भूत विना ही प्रयोजन औरनिकों भ्रम उपजावै पीड़ा देवै तौ ताकौ निकृष्ट ही १५०
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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