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मो.मा. प्रकाश
कहिए। तैसें ब्रह्म विना ही प्रयोजन अन्य जीवनिकों नाया उपजावै तौ वाकों कहा कहोगे। | ऐसे माया ब्रह्मकी कहिए है, सो भी भ्रम ही है।
बहुरि वै कहै हैं-जुदे जुदे बहुत पात्रनिविषे जल भरया है तिन सबनिविषै चन्द्रमा | का प्रतिबिम्ब जुदा जुदा पड़े है । चन्द्रमा एक है। तैसें जुदे जुदे बहुत शरीरनिविषै ब्रह्मका || | चैतन्य प्रकाश जुदा जुदा पाइए है । ब्रह्म एक है। तातै जीवनिकै चेतना है सो ब्रह्महीकी है। | सो ऐसा कहना भी भ्रम ही है । जातें शरीर जड़ है याविणे ब्रहका प्रतिबिम्बतें चेतना भई | तो घटपटादि जड़ है तिनविष ब्रह्म का प्रतिबिम्ब क्यों न पड़या अर चेतना क्यों न भई ।। | बहुरि वै कहै है शरीरकों तौ चैतन्य नाहीं करै है जीवकों करे है। तब वाकों पूछिए है कि । | जीवका स्वरूप चेतन है कि अचेतन है। जो चेतन है तौ चेतनका चेतन कहा करेगा। जो
अचेतन है तो शरीरकी वा घटादिककी वा जीवकी एक जाति भई । बहुरि वाकौं पूछिए हैब्रह्मकी अर जीवनिकी चेतना एक है कि भिन्न है । जो एक है तो ज्ञानका अधिक हीनपना. | कैसें देखिए है । बहुरि ए जीव परस्पर वह वाकी जानीकों न जानै वह वाकी जानीकों न जाने | सो कारण कहा ? जो तू कहेगा यह घट उपाधिका भेद है तो चेतना भिन्न भिन्न ठहरी। घट उपाधि मिटे याकी चेतना ब्रह्ममें मिलेंगी कै नाश हो जायगी? जो नाश हो जायगी तो यह जीव अचेतन रह जायगा अर तू कहेगा जीव ही ब्रह्ममें मिलि जाय है तौ तहां ब्रह्मविषै