SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वारणतरण श्रावकाचार ॥९ ॥ कभी ऐसे गुरु निश्चयनयके एकातको पकडकर अपनेको तत्वज्ञानी, शुद्धोपयोगी, बंधव मोक्षसे रहित मान बैठते हैं और मन, वचन, कायकी क्रियासे आत्माका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, ऐसा निश्चयसे मानकर व्यवहार मार्गमें चलते हुए बत, तप, शील आदिकी कुछ भी परवाह नहीं रखते हुए मनमाना आचरण करके अपना संसार बढाते हैं। जिनेन्द्रकी आज्ञा तो यह है कि स्वानुभव लिये निश्चय दृष्टिसे जगतको देखो तब अपना व परका आत्मा शुद्ध एकाकार दीखेगा। इससे साम्यभाव आयगा । समाधिका लाभ होगा । परन्तु जब स्वानुभव नहीं हो और व्यवहार मार्गका आलम्बन लेना पडे, व्यवहारमें वर्ताव करना पडे तप निश्चयनयको गौण कर व्यवहारनयकी मुख्यतासे व्यवहार करना चाहिये। अपने पाप कर्मका बंध भी देखना चाहिये। अरहंत व सिडको पंध रहित देखना चाहिये । उनकी भक्ति करनी चाहिये । अशुभ भावोंसे बचने के लिये शील व व्रत पालना चाहिये, संयमसे रहना चाहिये, जिन आज्ञाके अनुसार व्यवहार चारित्र यथोचित पालना चाहिये, तथापि दृष्टि निश्चयनयपर रखते हुए शुद्ध भावों में जमनेका उद्यम रखना चाहिये। व्यवहार मार्गका एकांत भी मिथ्यात्व है, निश्चय नयका भी एकांत मिथ्यात्व है। दोनों नयों को जानकर उनका प्रयोग यथा अवसर जो लेता है वही यथार्थ जिन आज्ञाका माननेवाला है, वही सच्चा सम्पग्दृष्टी जैन साधु है, वही शुद्ध आत्मध्यानसे काँकी निर्जरा करता है। जो ऐसा तो करे नहीं, सामायिक व ध्यानका अभ्यास करे नहीं व अपनेको परमात्मावत् मानके संतुष्ट होजावे और स्वछंदरूपसे नियों के विषयों में वर्ते और माने कि मेरे इस रागरूप वर्तनसे कुछ भी बंधन होगा वह जिनआज्ञालोपी है क्योंकि जैनसिद्धांतमें कहा है कि जहांतक सूक्ष्म लोभका भी उदय दसवें गुणस्थान तक हैवहांतक कर्मका बंध होता है। कषायोंसे रंजित परिणाम होते हुए-कृष्ण, नील, कापोत, पीत व पन लेश्या सम्बन्धी राग भाव होते हुए अपनेको व्यवहार नयसे या पर्याय दृष्टिसे बंध न मानना श्री जिनेंद्रकी भाज्ञाको प्रगट रूपसे अमान्य करके विपरीत अडान रखके मिथ्यात्वको ही पोषण करना है। श्री अमृतचन्द्र आचार्य समयसार कलशमें कहते हैंसम्यग्दृष्टिः स्वयमयमहं नातु बन्धो न मे स्यादित्यत्तानोत्पुककवदना रागिणोऽप्याचरन्तु । आलम्बंता समितिपरता ते यतोऽयापि पापा आस्मानास्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्परिकाः ॥५-७॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy