SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मावार्थ-जो रागी होते हुए भी ऐसा माने कि मैं तो सम्यग्दृष्टी हूँ मुझे तो कभी बंध होही, श्रावकार नहीं सक्का और मुंह फुलाए रहकर घमंड में रहे और चाहे जैसा आचरण करे अथवा बाहरसे ईर्या आदि पांच समितिको भी पाले तौभी वह पापी ही है, सम्यक्तसे खाली है क्योंकि उसको आत्मा व अनास्माका सम्यक् भेदज्ञान नहीं हुआ है। मोक्षमार्गी स्याबादी है जो ज्ञान और क्रिया दोनोंके माथ यथासम्भव मैत्री रखता हुआ ६ चलता है। वहीं कहा है स्याहादकौशलसुनिश्चलसंयमाभ्यां, यो भावयत्यहरहः स्वमिहोपयुक्तः । ज्ञानक्रियानयपरस्परतीव्रमैत्री-पात्रीकृतः श्रयति भूमिमिमा स एकः ॥ २१-११॥ भावार्थ-जो स्याबादमें चतुर है व संयममें निश्चल है और उपयोगवान होकर निरंतर आत्माकी भावना करता है वह ज्ञान दृष्टि व क्रिया दृष्टि इनमें परस्पर तीन मैत्री रखता हुआ इस मोक्षमार्गकी भूमिको आश्रय करनेवाला है। वही आचार्य पुरुषार्थसिड्युपायमें कहते हैं येशिन सुदृष्टिस्तेनशिनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तनांशेनास्य बन्धनं भवति ॥ २१९॥ - भावार्थ-जितने अंश परिणामों में सम्यग्दर्शन है उतने अंश बंध नहीं होता है। जितने अंश रागभाव है उतने अंश बंध होता है। इस बातको सम्यक्ती भलेपकार जानता है उसी प्रकार आचरण करता है, रागादिके निमित्तोंसे भी बचता है, वीतरागमय रहनेकाही पुरुषार्थ करता है। जो ऐसा स्वयं रहे, ऐसा कहे वही सच्चा गुरु है। इससे विपरीत कुगुरु है। मूढ़ लोग ऐसे कुगुरुको गुरु मान करके ठगाए जाते हैं परंतु सम्यग्दृष्टी ज्ञानी ऐसेको कभी गुरु नहीं मानते हैं। ___ श्लोक-कुगुरुं संगते येन, मान्यते भय लाजयं ।। आशासस्नेहलोभेन, ते नरा दुर्गतिभाजनं ॥ ८९ ॥ कुगुरुं प्रोक्तं येन, वचनं तदविश्वासनं । विश्वासं ये च कुर्वति, ते नरा दुर्गतिभाजनं ॥ १०॥ अन्वयार्थ--(येन ) जो कोई (कुगुरुं ) गुरुकी ( संगते ) संगति करते हैं। तथा (भय काजय ) भय
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy