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________________ लाज (भाशा) आशा (सस्नेह) प्रेम ( कोमेन)वलोभके कारण (मान्यते) उनकी प्रतिष्ठा करते हैं श्राव (से नरा ) वे मनुष्य ( दुर्गति भाग्नं ) कुगतिके पात्र हैं। (कुगुरुं ) कुगुरुद्वारा (येन प्रोक्तं ) जो कुछ कहा, ॐ गया ( तत् वचन) वह वचन (अविश्वासनं) विश्वास करने योग्य नहीं है (येच) और जो कोई (विश्वास) उनका विश्वास ( कुर्वति) करते हैं (ते नरा) वे मनुष्य (दुर्गति भाजन ) कुगतिके पात्र हैं। विशेषार्थ-जिन कुगुरुनाका स्वरूप ऊपर कहा गया है वे सब मोक्षमार्गके सच्चे स्वरूपके न स्वयं अशावान हैं और न उसको यथार्थ कहते हैं। किन्तु एकांत, विपरीत, संशय व अज्ञान व विनय मिथ्यात्वके पोषक उनके वचन होते हैं, वे वचन विश्वास करने योग्य नहीं हैं। जो कोई मूढ मनुष्य कुगुरुको कुगुरु मानते हुए भी किसीके भयसे व कोई लाजसे या कोई आशासे व किसीके स्नेहवश या लोभके कारण उनकी भक्ति करते हैं, उनको मानते हैं व उनकी संगति करते हैं या उनके पचनोंपर विश्वास करते हैं वे मानव मिथ्यात्वकी पुष्टि या अनुमोदनाके दोषी होते हुए घोर पाप बाधकर मरक निगोद पशु गति आदिमें जाकर कष्ट पाते हैं। स्वामी समन्तभद्राचार्यने भी रत्नकरण्डमें कहा है भयाशास्नेहलोभाच्च, कुदेवागमलिंगिनाम् । प्रणाम विनयं चैव न कुर्युः शुद्धष्टयः ॥३०॥ भावार्थ-सम्यग्दृष्टी भय, आशा, स्नेह, लोभसे भी कभी कुदेव, कुशाखा, व कुगुरुको प्रणाम पविनय नहीं करेगा। सम्यग्दृष्टी वही है जो परिणामोंसे उज्वलता रक्खे, जो जैसा हो उसको वैसा माने पूजे । सम्यक्ती धर्मका प्यासा है।जहां सपा धर्म मिलेगा वहां उसका आदर होगा। जहां इसके विपरीत धर्मका भाव है वहां उसकी भक्ति कभी हो नहीं सक्ती है, क्योंकि वह धर्म, अधर्मको पहचानता है । सम्यकदृष्टीको लोभी, भयवान आदि नहीं होना चाहिये । कभी कोई २ यह विचारते हैं कि ॐ हम अमुक राजा या सेठके यहां काम करते हैं, ये जिस देवताकी भक्ति करते हैं यदि हम नहीं करेंगे ७ तो ये हमारी आजीविका हर लेंगे अथवा अमुक राजाकी यह आज्ञा है कि अमुक कुदेवको जो नहीं मानेगा उसको दण्ड मिलेगा तौ सम्यक्ती प्राण जानेके भयसे या आजीविका जानेके भयसे कभी भी अपनी अडासे विपरीत देव या गुरुकी भक्ति नहीं करेगा। यदि दस ऐसे आदमियों के 4444444444444444444444444444444444
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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