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मो.मा.
प्रकाश
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संपूर्ण वीतरागताको परमधर्म माने है। ऐसें चरणानुयोगका प्रयोजन हैं।
बहुरि द्रव्यानुयोगविर्षे द्रव्यनिका वा तत्त्वनिका निरूपणकरि जीवनिकों धर्मविषै लगाईए है। जे जीवादिक द्रव्यनिकौं पहिचानें नाहीं, आपा परकों भिन्न जाने नाही, तिनकों हेतु दृष्टांत युक्तिकरि वा प्रमाणनयादिककरि तिनका स्वरूप ऐसे दिखाया, जैसें याकै प्रतीति। होय जाय । ताके अभ्यासतें अनादि अज्ञानतादूरि होय, अन्यमत कल्पित तत्वादिक झूठ भासे, तब जिनमतकी प्रतीति होय । अर उनके भावका अभ्यास राखै, तो शीघ्र ही तत्वज्ञानकी प्राप्ति होय, जाय । बहुरि जिनकै तत्त्वज्ञान भया होय, ते जीव द्रव्यानुयोगकों अभ्यासैं । तिनकों अपने श्रद्धानके अनुसार सो सर्व कथन प्रतिभासे है। जैसे काहूनें किसी विद्याकों सीख लई । परंतु जो ताका अभ्यास किया करै तो वह यादि रहै, न करै तौ भूलि। जाय । तैसें याकै तत्त्वज्ञान भया, परंतु जो द्रव्यानुयोगका अभ्यास किया करै, तो वह तत्त्वज्ञान रहै, न करै तौ भूलि जाय । अथवा संक्षेपपर्ने तत्त्वज्ञान भया था, सो नानायुक्ति हेतु दृष्टांतादिककरि स्पष्ट होय जाय, तो तिसविर्षे शिथिलता न होय सके । बहुरि इस अभ्यासते रागादि घटनेते शीघ मोक्ष सधै । ऐसें द्रव्यानुयोगका प्रयोजन जानना।
अब इन अनुयोगनिविषै किस प्रकार व्याख्यान है, सो कहिए हैप्रथमानुयोगविर्षे जे मूलकथा हैं, ते तो जैसी हैं तैसी ही निरूपित हैं । पर तिनविषे
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