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श्रावकाचार
॥९॥
अध्यातम रस पूर्ण है, मिथ्यात्व कृपान ।
जो बांचें मन लायके, पावै आतमध्यान ॥२२॥ बुद्धि नहीं पर धर्म रुचि, तावश टीका कीन ।
भूलचुक जो हो सुधी, करौ शुद्ध रुषहीन ॥२३॥ मंगल श्री अरहन्त है, मंगल मिर महान ।
मंगल श्री प्राचार्य हैं, मंगल उवज्ञान ॥४॥ मंगल साधु महंत हैं, मंगल है जिनधर्म ।
- मन पच तन सेवा करत, भागत है सब भर्म ॥ २५ ॥ मङ्गल हो या नगरको, सुखी रहें सब लोक ।
आत्म ज्ञानको पायके, करें स्वहित परलोक ॥२६॥ सब साधी जननी, यादै म अपार ।
धर्म अहिंसा जगमगै, हो प्रभावना सार ॥२७॥ विद्याका विस्तार हो, अर्थ काम वृष पाल।
"सुखसागर" में लीन हों, करें दुस-जंजाल ॥२८॥ आश्विन सुद दशमी दिना, है रविवार महान ।
ग्रन्थ पूर्ण तादिन कियो, श्री जिनवर कर ध्यान ॥२९॥
समाप्त।