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________________ मो.ना. प्रकारा पाइये है तिनिकों जो अन्यथा जानै अर तैसे ही श्रद्धान करै तौ बिगाड़ होइ ताते याकों मिय्यादृष्टी कहिए । बहुरि तिनिकों जो यथार्थ जानै अर तैसें हो श्रद्धान करै तौ सुधार होइ। | ताते याकों सम्यग्दृष्टी कहिए । इहां इतना जानना कि अप्रयोजनभूत वा प्रयोजनभूत पदा| थनिका न जानना वा यथार्थ अयथार्थ जानना जो होइ तामै ज्ञानकी हीनता अधिकता होना इतना जीवका बिगार सुधार है । ताका निमित्त तौ ज्ञानावरण कर्म है। बहुरि तहां प्रयोजन| भूत पदार्थनिकों अन्यथा वा यथार्थ श्रद्धान किए जीवका किछु और भी बिगार सुधार हो है। ताते याका निमित्त दर्शनमोह नामा कर्म है। इहां कोऊ कहै कि जैसा जाने तैसा श्रद्धान | करै तातै ज्ञानावरणहीकै अनुसारि श्रद्धान भासै है इहां दर्शनमोहका विशेष निमित्त कैसें । || भासै ? ताका समाधान, प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वनिका श्रद्धान करनेयोग्य ज्ञानावरणका क्षयोपशम तो सर्व | || संज्ञी पंचेंद्रियनिकै भया है। परन्तु द्रव्यलिंगी मुनि ग्यारह अंग पर्यंत पढ़ें वा ग्रैवेर क देव अवधिज्ञानादियुक्त हैं तिनिकै ज्ञानावरणका क्षयोपशम बहुत होते भी प्रयोजनभूत जीवादिक का श्रद्धान न होइ । अर तिर्यंचादिककै ज्ञानावरणका क्षयोपपशम थोरा होतें भी प्रयोजनभूत जवादिकका श्रद्धान होइ तातै जानिए है ज्ञानावरणहीकै अनुसारी श्रद्धान नाहीं । कोऊ जुदा कर्म है सो दर्शनमोह है । याकै उदयतै जीवकै मिथ्यादर्शन हो है, तब प्रयोजनभूत जीवादि
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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