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________________ मो.मा. प्रकाश की प्रवृत्तिको छोरि हिंसादिक पापप्रवृत्तिविषै प्रवर्तें महंतपना कैसे रहे । बहुरि कई ३ हैं जो हमारे बड़े भक्त भए हैं, वा सिद्ध भए हैं, वार्नामा भए हैं । हम उनकी संततिविषे हैं, ताते | हम गुरु हैं । सो उन घड़ेनिके बड़े तो ऐसे थे नाहीं । तिनकी संततिविषै उत्तमकार्य किए उत्तम मानो हो, तौ उत्तमपुरुषको संततिविषे जो उत्तमकार्य न करें, ताक उचम काहेकौं मानो हो । बहुरि शास्त्रनिविषै वा लोकविषे यह प्रसिदुध है। पिता शुभकार्यकरि उच्चपदको पावै, पुत्र अशुभ कार्यकरि नीचपदकों पाये । वा पिता शुभकार्यकरि नीचपदकों पावे, पुत्र शुभकार्य करि उच्चपदकों पायें । तातें बड़ेनिकी अपेक्षा महंत मानना योग्य नाहीं । ऐसें कुलकरि गुरुपना मानना मिथ्याभाव जानना । बहुरि केई पट्टकरि गुरुपनों मानें हैं। खो कोई पूर्व महंतपुरुष भया होय, ताकै पाटि जे शिष्य प्रतिशिष्य होते भाए, तहां तिनविषै तिस महंतपुरुषकैसे गुण न होय, तौ भी गुरुपों मानिए, सो ऐसें ही होय सौ उस पाटविषै कोई परस्त्रीगमनादि महापापकार्य करेगा, सो भी धर्मात्मा होमा, सुमतिकों प्राप्त होगा, सो संभवे नाहीं । श्रर वह महापापी है, तौ पाटका अधिकार कहां रह्या । जो गुरुपदयोग्य कार्य करे, सो ही गुरु है । बहुरि केई. पहेलें तो स्त्री आदिके त्यागी थे, पीछे भ्रष्ट होय विवाहादि कार्यकरि गृहस्थ भए, तिनकी संतति आपको गुरु माने है । सो भ्रष्ट भए पीछे गुरुपना कैसें रह्या । अर गृहस्थवत् ए भी भए । इतना विशेष भया, जो ए भ्रष्ट हाय गृहस्य भए । इनिकों मूल गृहस्थधर्मी गुरु कैसें मानें। २६८
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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