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वारणवरण
॥१६८॥
धर्म भावको बढानेवाला है । वास्तवमें पात्रोंको दान देना है वह रत्नत्रय धर्मकी प्रतिष्ठा करना है । जो गृहस्थ सम्यक्ती है व दानी है वह कभी ८४ लाखमेंसे ५८ लाख योनियों में पैदा नहीं होता है । ५८ लाखका वर्णन इस भांति है
....७ लाख
....७
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नित्य निगोद साधारण वनास्पतिकाधिक इतर निगोद साधारण वनास्पतिकायिक पृथ्वी कायिक ७ लाख जल कायिक वायु कायिक प्रत्येक वनस्पतिकायिक १० " तेन्द्रिय प्राणी २ चौन्द्रिय प्राणी
७ लाख
७
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अग्नि कायिक ७ "" बेन्द्रिय प्राणी २ " कुल ५८ लाख इससे सिद्ध हुआ कि सम्पत्ती कभी एकेन्द्रियसे चौन्द्रिय तककी किसी पर्याय में जन्म नहीं लेता है । पराधीन व अज्ञानमई पर्यायोंसे तो छूट जाता है। सम्यक्त अवस्था में यदि आयु बाधे तो मनुष्य या यदि पशु हो तो देव आयु बांधेगा व देव या नारकी होगा तो मानव आयु बांधेगा, परंतु जो सम्यक्त होनेके पहले नरक, तिर्येच, मानव आयु बांध ली हो तो मानव या तिर्थचको भी नारक, तिर्यच या मानव पंचेंद्रिय जन्मना होता है । इसलिये ८४ लाखमेंसे पंचेंद्रिय की योनियां जो २६ लाख हैं उनको यहां नहीं गिनाया है । वे २६ लाख हैं
पंचेंद्रिय तिर्यच ४ लाख
देव
४ लाख
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नारकी ४ लाख मानव १४ लाख
श्लोक – शुद्धसम्यक्क संयुक्ताः, शुद्ध तत्व प्रकाशकाः ।
कुल २६ लाख
कुल ५८+२६=८४ लाख योनियां होती हैं । वास्तवमें सम्यक्तकी बड़ी अपूर्व महिमा है ।
ते नरा दुःखहीना स्युः, पात्रदानरता सदा ॥ २६९ ॥
अन्वयार्थ – (शुद्ध सम्यक्त संयुक्ताः) जो शुद्ध सम्यक्कके धारी हैं (शुद्ध तत्व प्रकाशकाः) व शुद्ध आत्मीक तत्वके प्रकाशक हैं । व (सदा पात्रदानरताः ) सदा पात्रको दान देनेमें रत हैं (ते नरा दुःखहीना स्युः ) वे मानव दुःखों से छूट जाते हैं ।
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