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________________ वारणतरण ॥२९॥ "रत्नकरडा नारकतिर्मन सावभवसनाथाः । महाका, पशु, नपुंसक विशेषार्थ-सम्यग्दर्शनके धारी जो व्रत रहित भी हैं, परन्तु शुखात्मीक तत्वके अनुभव करने श्रावकाचार वाले हैं तथा नित्य ही पात्रोंको दान देते रहते हैं वे पुण्यको बांधकर उत्तम गतिमें जाते हैं-वे कभी दुःखोंसे भरी गतियों में नहीं जाते हैं। मिथ्यादृष्टी यदि पात्र दान करे तो भोगभूमिमें जाता है तब यदि सम्यग्दृष्टी दान करे तो वह तो स्वर्ग हीको प्राप्त होगा। वहांपर भी नीच जातिका देव नहीं होगा। सम्यक्त धारी जीवोंके सदा ही परिणामों में विशुद्धता रहती है। अंतरंगमें किसीसे * अति द्वेषपूर्ण भाव नहीं करता है । यदि कदाचित् वैरभाव होता भी है तो वह उस वैरीके कृत्य , मात्रसे होता है। सम्यक्ती उसकी आत्माका तो हित ही चाहता है। रत्नकरंडश्रावकाचारमें कहा हैसम्यग्दर्शनशुद्धा नारकतियङ्नपुंसकत्रीत्वानि । दुष्कुलविकृताल्पायुर्दरिद्रतां च ब्रमन्ति नाप्यव्रतिकाः ॥५॥ ओजस्तेजो विद्यावीर्ययशोवृद्धिविनयविभवसनाथाः । महाकुलाः महा मानवतिलका भवन्ति दर्शनपूताः॥ १६ ॥ ___ भावार्थ-जिनके सम्यग्दर्शन शुद्ध है वे नारकी, पशु, नपुंसक, स्त्री, नीच कुल, विकलांगी, अल्पाय, दलिद्री नहीं होते हैं। बत रहित हैं तौभी खोटी अवस्था नहीं पाते हैं। वे दीप्तवान, तेजस्वी, विद्वान, वीर्यवान, यशस्वी, विजयी, सम्पत्तिके धारी, उन्नतिशील, महा कुलवान, महान कार्य करनेवाले पुरुषश्रेष्ठ होते हैं। सम्यग्दर्शनकी शुद्धता परमोपकारिणी है। श्लोक-पात्रदानं च चत्वारि, ज्ञानं आहार भेषजं । अभयं च भयं नास्ति, दानं पात्र सदा बुधैः ॥२७॥ अन्वयार्थ—(पात्रदानं च चत्वारि) पात्र दान चार प्रकारका होता है (ज्ञानं माहार भेषजं अभयं च) ज्ञान दान, आहार दान, औषधि दान, तथा अभय दान (सदा वुधैः पात्रदानं ) बुद्धिमान सदा पात्रोंको ४ ४ दान दिया करते हैं इमसे उनको (भयं नास्ति) भय नहीं होता है, वे निर्भय रहते हैं। विशेषार्थ-पात्रोंके दो भेद कहे गए हैं जो दान देने योग्य हैं-एक सुपात्र व कुपात्र | यदि कुपात्रोंको भी दान होजावे तो कुभोगभूमिका फल होता है तब पात्रदानकी तो माहमा ही क्या कही जासक्ती है। ज्ञानी गृहस्थ निरन्तर धर्मके तीन प्रकार पात्रोको दान दिया करते हैं। जैन सिद्धातमें चार ही दान मुख्य हैं। ये ही सच्चे दान हैं। ज्ञान दान अर्थात् ज्ञान सिखाना, शास्त्रोंको देना, शास्त्र भानासानाशाखाकाना, शाल॥१९॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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