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धारणवरणY
तत्वोंको औरका और समझना मिथ्यात्व है-मिथ्या और सत्य दोनों तत्वोंपर मिश्र श्रावसाचार
श्रद्धा रखना सम्यग्मिथ्यात्व है। सम्यग्दर्शन रखते हुए भी उसमें चल, मल, अगाढ तीन प्रकार ॥२७॥
दोष लगाना निर्मल सम्यक्तका न होना सो सम्यक्त प्रकृतिका भाव है। ये तीनों दोष इस जघन्य पात्रमें नहीं होते न उसमें माया, मिथ्या, निदान तीन शल्य होती हैं। वह सम्यक्ती कपट रहित, अण्डा सहित व आगामी भोगाभिलाष रहित धर्म पालता है, शास्त्रज्ञानका प्रेमी होता है-शास्त्रों के मर्मको समझता है तथा शुद्ध द्रव्यार्थिक नयपर विशेष लक्ष्य रखता है क्योंकि इस नयसे हरएक ४. शरीरमें आस्माका पवित्र शुद्ध दर्शन होता है। ऐसा अविरत सम्पती मोक्षका पात्र है।
श्लोक-त्रिविधि पात्रं च दानं च, भावना चिंत्यते बुधैः।
शुद्धदृष्टिरतो जीवर, अहावन लक्ष त्यक्तयं ॥ २६७ ॥ नीच इतर अप तेज च, वायु पृषि वनस्पती ।
विकलत्रयं च योनी च, अहावन लक्ष त्यक्तयं ॥ २६८॥ अन्वयार्थ-(बुधैः) बुद्धिमान लोग (त्रिविधि पात्रं च दानं च भावना चिंत्यते) तीन प्रकारके पात्रोंको दानकी भावना विचारते रहते हैं। ऐसा दानी (शुद्धष्टिरतः जीवः) जो जीव शुद्ध आत्मीक श्रद्धामें लवलीन है, सम्यग्दृष्टी है, वह ( अट्ठावन लक्ष त्यक्तयं) ८४ लाखमेंसे ५८ लाख योनियों में जन्म लेता है। (नीच) नित्य निगोद (इतर) इतर निगोद, (अपतेनं च वायु प्रथ्वि वनस्पति ) जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, पृथ्वीकायिक तथा वनस्पती कायिककी तथा (विकलत्रय च योनी च) देन्द्रिय, तेंद्रिय, चौन्द्रियकी योनि । (अट्ठावन लक्ष त्यक्तयं) इस तरह अट्ठावन लाख योनियोंसे बचा रहता है।
विशेषार्थ-जो सम्यग्दृष्टी शुद्ध आत्माका अनुभवी बुद्धिवान प्राणी है वह अति भक्तिपूर्वक बडी श्रद्धासे उत्सम, मध्यम, जघन्य इन तीन प्रकारके पात्रोंको दान देता है। निरन्तर भावना भाता है कि मैं दान हूँ। जब अवसर पाता है दान देनेसे चूकता नहीं है। श्रद्धावान जैनियोंको जो गृहस्थ हैं व अविरति हैं उनको भी मोक्षनार्गी समझकर आदरसे बुलाकर दान करता है। दान करना श्रावकका मुख्य कर्तव्य है। दानसे दातार व पात्र दोनोंके भाव प्रफुल्लिन होजाते हैं। दान