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वा रणतरण
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प्रकारकी सम्हाल रखता हुआ निर्भय सिपाहीके समान संसारके युद्धक्षेत्र में कमसे लड़ाई करता है, शंका दोषसे दूर रहता है।
कांक्षा - संसारके क्षणिक विषयभोगोंकी इच्छा नहीं रखता है। इन भोगोंको अतृप्तिकारी विनाशीक व देव समझता है, इनकी इच्छा करके धर्मका सेवन नहीं करता है, केवल सुखका अभिलाषी होता है ।
विचिकित्सा - किसी को रोगी, दुःखी, दलिद्री, गरीब देखकर घृणा नहीं करता है, वस्तुस्वरूप विचारकर - दया लाकर उनकी सहायता करता है ।
अन्यदृष्टि प्रशंसा - मिथ्यादृष्टी अज्ञानी अधर्मको धर्म जानकर जो क्रिया करें-पूजा, भक्ति, जप, तप, दान करें उसकी मनमें प्रशंसा नहीं करता है क्योंकि उनमें मिथ्यात्वका आशय है, जिस आशयको त्यागना चाहिये । इस आशय से किया हुआ धर्म कर्म प्रशंसनीय नहीं हो सका है । अन्यदृष्टि संस्तव - अपने वचनोंसे भी सम्यक्ती मिथ्यात्व धर्मक्रियाको प्रशंसा नहीं करता है क्योंकि वह मिथ्या अभिप्रायको पुष्ट करनेवाली होजाएगी । इस तरह पांच अतीचारोंको टालकर सम्यक्त भावको निर्मल रखता है ।
नोट- यहां 'मति कमलासने' का जो अर्थ समझ में आया सो लिखा है। श्लोक – मिथ्या त्रिविधि न दिष्टंते, शल्यत्रय निरोधनं ।
सुयं च शुद्ध द्रव्यार्थं, अविरत सम्यग्दृष्टितं ॥। २६६ ।।
अन्वयार्थ - ( मिथ्या त्रिविधि न दिष्टंते) उस आवरत सम्पक्की में तीन प्रकार मिथ्यात्वभाव नहीं दिखलाई पडता है । (शल्यत्रय निरोधनं ) उसने तीन प्रकार शल्यको निकाल डाला है । (सुयं च शुद्ध द्रव्यार्थ ) श्रुतज्ञानी है व शुद्ध द्रव्यार्थिक नयको समझता है ऐसा (अविरत सम्यग्दृष्टित ) यह अविरत सम्यग्दृष्टि होता है ।
विशेषार्थ — इस सम्यक्तीके भीतर तीन प्रकारका मिथ्यात्व नहीं होता है- मिध्यात्व, सम्पग्मिथ्यात्व व सम्पक्त प्रकृति मिध्यात्व, क्योंकि इसने इन तीन कर्मको प्रकृतियोंका उपशम या क्षय कर डाला है ।
श्रावकाचार
॥२६६॥