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________________ वारणतरण ॥२७॥ वर्गतके बीजके समान बहुत भारी फलता है (दानं च ज्ञानं बद्धति) ज्ञान दान ज्ञानको बढ़ाता है (बुधः श्रावकाचार सदा दान चिंता) बुद्धिमानोंको सदा दान करनेको उत्साह रखना चाहिये। विशेषार्थ-जैसे बर्गतका बीज बहुत छोटा होता है, परन्तु पृथ्वीमें बोए जानेपर बडा भारी वृक्ष होकर फलता है, तैसे पात्रोंको दिया हुआ दान बहुत भारी फल देता है। जो ज्ञान दान करते हैं उनका ज्ञान बढते२ केवलज्ञानरूप होसक्ता है। जो आहारदान करते हैं वे भविष्य में विपुल धनशाली होते हैं, जो औषधि दान करते हैं वे बडे बलिर, वीर्यवान, साहसी मानव होते हैं। जो अभयदान करते हैं वे कभी किसी शत्रु द्वारा भयको प्राप्त नहीं होते हैं। केवलज्ञानके समान और कोई फल नहीं है। जो दान अरईत पदमें सहकारी है उस दान देनेकी भावना बुद्धिमान सदा करते रहते हैं। गृहस्थोंके घरकी शोभा ही पात्र दानसे है। जो लक्ष्मी कमाई जाती है वह लोभ और मान कषायको बढा देती है। यदि उसे दानमें न लगाई जावे तो वह कुगतिमें पटकने का कारण होजाती है। और यदि निरंतर दान व परोपकारमें व्यय की जावे तो लक्ष्मी के कारण न तो लोभ बढने पाता और न मान भाव ही बढता है। लक्ष्मी अपनी नहीं है, पर वस्तु है, चंचल है । जबतक इसका स्वामीपना मेरे पास है मुझे यही योग्य है कि इसे दान में लगाकर सफल करलें, ऐसा विचार ४ दानी उदारचित्त मंदकषाई व संतोषी रहता है इसीसे वह धन द्वारा धर्म कमाता है। कृपण दान न ४ करता हुवा कठोर भावोंसे पाप कमाता है। श्लोक-पात्रदानं मोक्षमार्गस्य, कुपात्रं दुर्गतिकारणं । विचारनं भव्यजीवानां, पात्रदानरता सदा ॥ २७४ ॥ अन्वयार्थ-(पात्रदानं मोक्षमार्गस्य) पात्र दान मोक्षमार्गकी सिद्धिका उपाय है ( कुपात्रं दुर्गातकारणं) परन्तु अपात्र दान दुर्गतिका कारण है। (भव्यत्रीवानां विचारनं ) भव्य जीवोंका कर्तव्य है कि वे भले. प्रकार विचार करके (पात्रदानरता सदा) पात्र दानमें सदा रत हों। विशेषार्थ-यहां कुपात्रका अर्थ कुत्सित पात्र अर्थात् अपात्र है। अपात्रका भाव यही है कि जिसमें न व्यवहार सम्यक है न व्यवहार चारित्र है। जो जिन मार्गसे विरुद्ध आचरण करते हैं, मिथ्यात्वमें लीन हैं, मिथ्या मार्गके पोषक है, उनको अपात्र कहते हैं। पात्र दान अर्थात् सुगात्र दान
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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