SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 497
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मो.मा. प्रकाश 1334 इस संसार अवस्थाविषै अनन्तानन्त जीव हैं ते श्रनादिही तैं कर्मबंधन सहित हैं ऐसा नाहीं है जो जीव पहले न्यारा था अर कर्म न्यारा था पीछे इनिका संयोग भया । तौ कैसें है - जैसें, | मेरुगिरि आदि अकृत्रिम स्कंधनिविषै अनंते पुदगल परमाणु अनादितैं एक बन्धनरूप हैं । | पीछे तिनमें केई परमाणु भिन्न हो हैं केई नए मिलें हैं । ऐसें मिलना बिछुरना हुआ करें है । | तैसें इस संसारविषै एक जीव द्रव्य अर अनंते कर्मरूप पुदगलपरमाणु तिनिका अनादितै एक बंधनरूप है पीछें तिनिमैं केई कर्मपरमाणु भिन्न हो हैं ऐसें मिलना विलुरना हुआ करै है । बहुरि इहां प्रश्न — जो पुद्गलपरमाणु तौ सगादिकके निमित्ततैं कर्मरूप हो हैं अनादि कर्मरूप कैसे हैं ? ताका समाधान निमित्त तौ नवीन कार्य होय तिसविषै ही संभव है । अनादि अवस्थाविषै निमित्तका किछू प्रयोजन नाहीं । जैसें नवीन पुद्गलपरमाणुनिका बंधान तौ स्निग्ध रूक्ष गुणकेशनकरि ही हो है अर मेरुगिरि आदि स्कन्धनिविषै अनादि पुद्गलपरमाणुनिका बंधान है तह निमित्तका कहा प्रयोजन है । तैसें नवीन परमाणुनिका कर्मरूप होना तौ रागादिक हो है र अनादि पुद्गलपरमाणुनिकी कर्मरूप ही अवस्था है। तहां निमित्तका कहा प्रयोजन है ? बहुरि जो अनादिविषै भी निमित्त मानिए तौ अनादिपना रह नाहीं । तातें कर्मका सम्बन्ध अनादि मानना । सो तत्त्वप्रदीपिका प्रवचनसार शास्त्रकी व्याख्याविषै जो सामान्य ३३
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy