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________________ मो.मा. प्रकाश 30-00-07 झूठी कल्पना है । बहुरि जहां साधनविषै किछु चेतना रहे कार तहां साधनतें शब्द सुने, ताक अनहद शब्द बतावें । सो जैसें बीणादिकके शब्द सुननेतें सुख मानना तैसें तिसके सुननेते सुख मानना है । यह तो विषय पोषण भया परमार्थ तो किछू नाही ठहरया । बहुरि | पवन के निकसने पैठने विषे 'सोह' ऐसे शब्द की कल्पनाकरि ताक 'अजपा जाप' कहे हैं । सो जैसे तीतर के शब्दविषै 'तू ही' शब्दकी कल्पना करें हैं किछू तीतर अर्थ अवधारि ऐसा शब्द कहता नाहीं । तैसें यहां 'सोहं' शब्दकी कल्पना है । किछू पवन अर्थ अवधारि ऐसा शब्द कहता नाहीं । बहुरिशब्द के जपने सुननेतें ही तौ किछू फलप्राप्ति नाहीं । अर्थ अवधारे फलप्रासि हो है । सो 'सोहं' शब्दका तो यह अर्थ है 'सो हूं हूं' यहां ऐसी अपेक्षा चाहिए है, 'सो' कौन ? तब ताका निर्णय किया चाहिए । जातैं तत् शब्दकै अर यत शब्द कैंनित्य संबंध है। ता वस्तु का निर्णयकरि ताविषै अहंबुद्धि धारने विषे 'सोहं' शब्द बने । तहां भी आपकों आप अनुभवें तहां तो 'सोहं' शब्द संभव नाहीं । परकौं अपने स्वरूप बतावनेविषै 'सोहं' शब्द संभवे | है । जैसें पुरुष आपकों आप जाने, तहां 'सो हूं हूं' ऐसा काहेकौं विचारै । कोई अन्यजीव आपक न पहचानता होय पर कोई अपना लचण न पहचानता होय, तब वाकों कहिए 'जो ऐसा है सो मैं हूं' तैसें ही यहां जानना । बहुरि केई ललाट भंवारा नासिका के अग्रभाग देखनेका | साधनकरि त्रिकुटी आदिका ध्यान भया कहि परमार्थ माने, सो नेत्रकी पूतरी फिरे मूर्तीक वस्तु १८३
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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