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मो.मा. प्रकाश
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किसी क्रियानिवि प्रवृत्ति संभव ही नाहीं । अर जो कामक्रोधादि पाइए है तो जैसे ए भाव थोरे होंय तैसे प्रवृति करनी । स्वच्छंद होय इनिकौं बधावना युक्त नाहीं । वहुरि केई जीव | पवनादिकका साधनकरि आपकौं ज्ञानी मानै हैं । तहां इडा पिंगला, सुषुम्ण,रूप नासिकाद्वारकरि पवन निकसै, तहां वर्णादिक भेदनितें पवनहींकों पृथ्वी तत्त्वादिकरूप कल्पना करै हैं। ताको विज्ञानकरि किछ साधनतें निमित्तका ज्ञान होय तातें जगतकों इष्ट अनिष्ट बतावै आप महंत
कहावै सो यह तो लौकिक कार्य है किछु मोक्षमार्ग नाहीं । जीवनिकों इष्ट अनिष्ट बताय उनके । राग द्वेष बधावै अर अपने मान लोभादिक निपजावै यामें कहासिद्धि है बहुरि प्राणायामादिका || साधनकरि पवनकों चढाय समाधि लगाई कहें, सो यह तो जैसे नट साधनतें हस्तादिक क्रिया । करे तैसें यहां भी साधनतें पवनकरि क्रिया करि । हस्तादिक अर पवन यह तो शरीरहीके अंग हैं । इनिके साधनतें आत्महित कैसे सधै । बहुरि तू कहेगा-तहां मनका विकल्प मिट है। सुख | उपजे है यमके वशीभूतपना न हो है सो यह मिथ्या है । जैसें निद्रावि चेतनाकी प्रवृत्ति मिटे. है तैसें पवन साधनेतें यहां चेतनाकी प्रवृत्ति मिटे है । तहां मनकों रोकि राख्या है किछू वासना तो मिटी नाहीं ॥तातें मनका विकल्प मिट्या न कहिए। भर वेतनाविना सुख कौन भोगवे है। | ताते सुख उपज्या न कहिए । अर इस साधनवाले तो इस क्षेत्रविष भए हैं तिनिविषे कोई || अमर दीखता नाहीं । अग्नी लगाए ताका मरण होता दीखें है ताते यमके वशीभूत नाहीं यह
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