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कारणतरण
श्रावकाचार
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किसान धान्यके ढेरमें चावलोंको अलग व भूसीको अलग देखता है व तेली तिलोंके ढेर में तेलको भूसीसे भिन्न देखता है व जौहरी खानसे निकले हुए माणिक-पन्नेके पाषाणमें रनको अलग मैलको अलग देखता है चतुर धोबी वस्त्रमें वस्त्रको अलग व मैलको अलग देखता है वैसे ही सम्यग्दर्शनधारी महात्मा आत्मासे अनास्माको भिन्न देखता है, सदा ही शुखात्माकी भावनामें दृढ रहता है। सूर्यसम तत्वज्ञानमें चमकता रहता है।
श्लोक-दर्शनं तत्व सर्धानं, तत्व नित्य प्रकाशकं ।
ज्ञानं तत्व न वेदंते, दर्शनं तत्व सार्धयं ॥ ३९४ ॥ मन्वयार्थ (तत्व सर्धानं दर्शनं ) तत्वोंका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है (नित्य तच्च प्रकाशक ) अवि* नाशी शुद्ध तत्वका प्रकाश करनेवाला है। (ज्ञानं तत्त्व न वेदंते ) सम्यग्दर्शन रहित ज्ञान तत्वको अनुभव नहीं कर सक्ता है (दर्शनं तत्व सायं) परन्तु सम्यग्दर्शन आत्मतत्वके अनुभवके साथ ही होता है।
विशेषार्थ-यद्यपि व्यवहारनयसे जीव आदि सात तत्वोंका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है परन्तु निश्चयनयसे शुद्ध आत्माका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। जहांतक शुद्ध आत्म तत्वका प्रकाश नहीं होता है वहांतक ज्ञान मात्र तो है परन्तु सम्यक्त नहीं है। सम्यक्तके विना ज्ञानका कुछ भी मूल्य नहीं है। विना सम्यक्तके ज्ञान जान तो सका है परन्तु स्वानुभव नहीं कर सकता है। जबतक स्वात्मामें चिरतानहो तबतक स्वाद नहीं आसका है। अनंतानुबंधी कषायके उपशम होनेसे स्वरूपाचरण चारित्रका प्रकाश होता है, तब ही मिथ्यात्वके उपशमसे शुद्ध स्वरूपकी सच्ची कचि होती है। यदि सम्यक्तके वाधक कर्मप्रकृतियोंका उदय हो तो कदापि शुद्ध आत्माका अनुभव नहीं होसका है। इसीलिये सम्यग्दर्शनके लिये प्रयत्न कर्तव्य है। नित्य तत्वका विचार परम उपयोगी
है। आत्मा रागादिसे, आठ कर्मादिसे, शरीरादि नौ कोसे भिन्न है ऐसा वारवार विचार करना ४ चाहिये । सम्यक्तकी ज्योतिमें ही आत्मीक तत्वका अनुभव होता है।
श्लोक-सम्यग्दर्शनं शुद्धं, ॐ वं कारं च विंदते ।
धर्मध्यानं उत्पाद्यते, ह्रियं कारण दिष्टते ॥ ३९५ ॥
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