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मो.मा.
प्रकाश
प्रकृतिरूप होय ऐसा संक्रमण शुभ शुद्ध दोऊ भाव होते होय । तातै पूर्वोक्त नियम संभवें || | नाहीं। विशुद्धताहीकै अनुसार नियम संभव है । देखो, चतुर्थगुणस्थानवाला शास्त्राभ्यास
आत्मचिंतवनादि कार्य करे, तहां भी निर्जरा नाहीं, बंध भी घना होय । बहुरि पंचमगुणस्थानवाला उपवासादि वा प्रायश्चितादि तप करै, तिस कालविर्ष भी वाकै निर्जरा थोरी, अर छठागुणस्थानवाला आहार विहारादि क्रिया करे, तिस कालविणे भी वाकै निर्जरा घनी। उसते।। भी बंध थोरा होय । तातें बाह्म प्रवृत्तिके अनुसार निर्जरा नाहीं है। अन्तरंग कषांयशक्ति घटें विशुद्धता भए निर्जरा हो है । सो इसका प्रकटखरूप आगें निरूपण करेंगे, तहां जानना।।।। ऐसें अनशनादि क्रियाकौं तपसंज्ञा उपचारतें जाननी । याहीतें इनको व्यवहार तप कया है। | व्यवहार उपचारका ऐक अर्थ है ! बहुरि ऐसा साधनते जो वीतरागभावरूप विशुद्धता होय, ||
सो सांचा तप निर्जराका कारण जानना । यहां दृष्टांत-जैसे धनकौं वा अन्नकों प्राण कह्या ।। | सो धनते अन्न ल्याय भक्षण किए प्राण पोषे जांय, तातै धन अन्नकों प्राण कह्यां। कोई | इंद्रियादिक प्राणनिकों न जाने, अर इनहीकों प्राण जानि संग्रह करे, तो मरण ही पावें। तैसें अनशनादिकौं वा प्रायश्चित्तादिकों तप कह्या, सो अनशनादि साधनते प्रायश्चित्तादिरूप प्रवर्ते बीतरागभावरूप सत्य तप पोख्या जाय । ताते उपचारकरि अनशनादिकों वा प्रायश्चितादिकों तप कहा। कोई वीतरागभावरूप तपकों न जानै अर इनहीकों तप जानि संग्रह करें,