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________________ मो.मा. प्रकाश उपदेश तौ ऊँचा चढ़नेकौं दीजिए है। तू उलटा नीचा पड़ेगा, तौ हम कहा करेंगे । जो तू मानादिक उपवासादि करे है, तौ करि वा मति करें, किछू सिद्धि नाहीं । अर जो धर्मबुधितै आहारादिकका अनुराग छोड़े है, तो जेता राग छूव्या तेता ही छूट्या । परन्तु इसहीकों तप जानि इसतें निर्जरा मानि संतुष्ट मति होहु । बहुरि अन्तरंग तपनिविषै प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, त्याग, ध्यानरूप जो क्रिया ताविषै बाह्यप्रवर्त्तन सो तौ बाह्य तपवत् ही जानना । जैसें अनशनादि बाह्यक्रिया हैं, तैसें ए भी बाह्यक्रिया हैं। तातैं प्रायश्चित्तादि बाह्यसाधन अन्तरंगतप नाहीं हैं । ऐसा ब्राह्म प्रवर्त्तन होते, जो अन्तरंग परिणामनकी शुद्धता होम, तहां तो निर्जरा ही है, बंध नाहीं हो है । अर स्तोक शुद्धताका भी अंश रहे, तो जेती शुद्धता भई ताकरि तो निर्जरा है । अर जेता शुभभाव है ताकरि बंध है । ऐसा मिश्रभाव युगपत् हो है, तहां बंध वा निर्जरा दोऊ हो हैं। यहां कोऊ कहै, शुभभाव पापकी निर्जरा हो है, पुण्यका बन्ध हो है, शुद्धधभावनितें दोऊनिकी निर्जरा हो है, ऐसा क्यों न कही ताका उत्तर Harihar स्थितिका तो घटना सर्व ही प्रकृतीनिका होय । तहां पुण्यपापका विशेष है ही नाहीं । घर अनुभागका घटना पुण्यप्रकृतीनि का शुद्धधोपयोगर्तें भी होता नाहीं । ऊपर ऊपरि पुण्य प्रकृतीतिकै अनुभागका तीव्रउदय हो है, अर पापम कृतिके परमाणु पलटि शुभ ३५२
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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