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________________ वारणतरण 1180 11 है । जब संसार में कर्मबंध सहित होता है तब यह कम के उदयसे राग, द्वेष, मोहमें परिणमन करके कर्मोंका बंध करता है और उनका फल सुख दुःख स्वयं भोगता है । यह जीव अपनी उन्नति व अवनतिमें स्वयं स्वतंत्र हैं । यदि यह पुरुषार्थ करे तो कर्म काट सक्ता है । अशुद्ध भावोंसे आप ही बंधता है, शुद्ध भावसे आप ही निर्वाणरूप होजाता है । हरएक शरीर में शरीशकार रहता है यद्यपि इसमें लोकप्रमाण फैलनेकी शक्ति है । इसीसे इसके प्रदेश असंख्यात कहलाते हैं । (२) अजीव तत्व-जीवपना, चेतनपना जिनमें न हो ऐसे पांच द्रव्य अजीवतत्व में गर्भित हैं। ( १ ) पुद्गल - जिसमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण पाया जाता है । यह परमाणु व स्कंधरूप से जगतमें व्यापी है । जिन कर्मोंका बंध होता है वे भी पुद्गल हैं । यह स्थूल शरीर भी पुद्गल है । इन्द्रियगोचर शब्दादि सष पुद्गल हैं । (२) धर्मास्तिकाय यह एक अमूर्तीक लोकव्यापी अखंड द्रव्य है । जीव पुद्गल जब स्वयं गमन कर हैं तब यह उदासीन रूपसे सहायता करता है । (३) अधर्मास्तिकाय - यह एक अमूर्तीक लोकव्यापी अखंड द्रव्य है । जीव पुद्गल जब स्वयं ठहरते हैं तब यह उदासीन रूपसे सहायता करता है । (४) कालद्रव्य - अमृर्तीक अणुरूप द्रव्य संख्या में असंख्यात हैं, लोकव्यापी हैं। इनकी सहायतासे सब द्रव्यों में परिणमन या अवस्थासे अवस्थांतर होता है । (५) आकाशद्रव्य-जो अनंत है, यह सब द्रव्योंको अवकाश देता है। जहां तक अन्य पांच द्रव्य भरे हैं उसको लोक या लोकाकाश कहते हैं। इसके बाहर अनंत आकाशको अलोक या अलोकाकाश कहते हैं । (३) आस्रवतस्य कर्म लोंका आत्मा के पास खिंवकर आनेको आस्रव कहते हैं । मन, वचन, कायकी क्रिया करते हुए आत्मामें चंचलता होती है इसीसे कर्मका आस्रव होता है । यदि शुभ मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति होती है तो मुख्यता से पुण्यकर्मका और यदि अशुभ मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति होती है तो पापकर्मका आस्रव होता है। (४) बंध तत्व आए हुए कर्म पुद्गलोंका जीवके प्रदेशों के साथ कुछ कालके लिये ठहर जाना श्रावकाचार ॥ ४० ॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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