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वारणतरण
दिये। श्री आमत
पुष्टिकारण, विनश्यात
विनश्यति ॥ १६ ॥
विशेषार्थ-अपात्रोंको देखकर आनन्द मनाना, उनकी अपात्रताका अनुमोदन करना है।
विशावर ४ मिथ्यात्व भावोंकी ही उनमें पात्रता है। मिथ्यात्त भावोंकी वासनासे व अनन्तानुवन्धी कषा
पकी तीव्रतासे एकेन्द्रिय जाति नाम कर्म, साधारण नाम कर्म, अपर्याप्ति नाम कर्म आदि प्रकृ. तियोंका बंध होनेसे यह जीव एक मानवसे मरकर सीधा साधारण वनस्पति रूप निगोद पर्यायमें चला जाता है, वहांसे फिर अनंतकाल में भी निकलना कठिन हो जाता है। अथवा नरकगति बांधकर नरक चला जाता है या अन्य पशु पक्षीकी पर्याय पालेता है। मिथ्यात्व समान कोई पाप नहीं है। मिथ्यात्व सहित व्यक्तिको धर्मात्मा मानके उसके अधर्मकी प्रतिष्ठा करनी उसे भी पतितY रखना है आप भी पतित होना है। विवेकी मानवको पात्र व अपात्रका विचार करके ही दान देना चाहिये। श्री अमितगति श्रावकाचारमें कहा है:
यथा रनोधारिणि पुष्टि कारण, विनश्यति क्षीरमलाबुनि स्थितम् ।
प्ररूद्रामध्यात्वमकाय देहिने, तथा प्रदतं द्रविग विनश्यति ॥ १६ ॥ भावार्थ-जैसे पुष्टिकारी दूध रजकी रखनेवाली तूंवमें रक्खा हुमा नाश हो जाता है मिथ्यात्व मलरूपी मलधारी प्राणीको दिया हुआ द्रव्य नाशको प्राप्त होजाता है। ___ श्लोक-पात्रदानं च शुद्धं च, दात्र शुद्धं सदा भवेत् ।
तत्र दानं च मुकं च, शुद्ध दृष्टि यथा मतं ॥ २६ ॥ अन्वयार्थ—(पात्रदानं च शुद्ध च) पात्रदान शुद्ध दान है इससे (दात्र शुद्ध सदा मोत् ) दातार निर। तर शुर होता है। (तत्र दानं च मुकं च) पात्रोंको दान देना मुकिका उपाय है (यथा शुबाट म ) जैसे शुद्ध सम्यग्दर्शन मोक्षका उपाय माना गया है।
विशेषार्थ-सम्यग्दर्शन सहित सुपात्रोंको दान देना शुद्ध दान इसलिये है कि उस दानके कारण दातारके परिणाम शुद्ध हो जाते हैं। उसको मोक्षमार्गकी गाढ रुचि पैदा होजाती है। यदि कदाचित् दातार शिथिल श्रद्धानी हो तो दानके पीछे सुपात्रों के द्वार। ऐसा योग्य धनोपदेश मिलता है जिससे वह मोक्षमार्गके सन्मुख होजावे। इसलिये जहां पात्रों को दान देना है वहां मोक्षमार्गपर चलना है । जिसतरह सम्यग्दर्शन मोक्षका उपाय है वैसे पात्रदान मोक्षका उपाय है। जैसी