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वार भवरण
१२८२॥
श्लोक – कुपात्रं अभ्यागतं त्वा, दुर्गति अभ्यागतं भवेत् । सुगतिः तत्र न दिष्टंते, दुर्गतिं च भवे भवे ॥ २८४ ॥
अन्वयार्थ – (कुप्पनं अभ्यागतं कृत्वा ) जो कोई अपात्रोंका स्वागत करते हैं वे (दुर्गति अभ्यागतं भवेत् ) अपने लिये कुपतिका स्वागत करते हैं ( तत्र सुगतिः न दृष्टते) उनको सुगतिका दर्शन नहीं होता है ( दुर्गतिं च भो भो ) उनको भव भव में दुर्गतिकी प्राप्ति होती है।
विशेष थं - जो मिथ्या दर्शन, मिथ्या ज्ञान व मिथ्या चारित्र से वासित भेषी कुलिंगी हैं उनका जो स्वागत करना है, उनको भक्ति पूर्वक दान देना है सो संसार के कारण मिथ्या दर्शन आदिका ही पोषण करना है । जिसका फल कुगतिका ही बंध है । तथा मिध्यात्वके बंधको आते दृढता पाना है । उम मिध्यात्वके उदयसे प्राणीको अनंत भवमें दुर्गतिका सामना करना पडेगा । वारंवार एकेन्द्रिय पर्याय में जन्मना होगा । उनको फिर उन्नति करके पंचेंद्रिय सैनीका जीवन पाना अति कठिन होजायगा । गुण और औगुणका ही आदर या निरादर है । मिध्यात्यादि दुर्गुण अप्रतिष्ठा के योग्य है इसलिये उनके धारी व्यक्ति भी भक्ति करने के योग्य नहीं है । यदि द्यूत रमन बुरी वस्तु है तो छूतके रमनवालेका आदर भी उचित नहीं है उससे जूए खेलनेवालेको जूएके खेलने को उत्तेजना मिलती है व स्वयं भी जूरके फंदे में पड जाने की आशंका है। इसलिये प्रतिष्ठा के योग्य रत्नत्रय हैं व उनके धारी सुपात्र | अपात्रोंको दान देना केवल निरर्थक ही नहीं है उल्टा पापबंध कारक है। मिथ्यादृष्टी ही किसी मान व लोभ व आशा के वशीभूत हो ऐसे अपात्रोंका स्वागत करके तीम दर्शनमोहका बंध करते हैं। विवेकीको ऐसा करना उचित नहीं है ।
श्लोक - कुपात्रं प्रमोदनं कृत्वा, एकेन्द्रि थावरे उत्पाद्यं ।
तिरियं नरय प्रमोदं च, कुपात्रदान फलं सदा ॥ २८५ ॥
अन्वयार्थ — (कुपात्रं प्रनोदनं कृत्वा) जो अपात्रोंको देखकर आनन्द मनाते हैं । वे (एकेन्द्र थावरे उत्पाद्यं) एकेन्द्रिय स्थावरों में जन्मते हैं (तिरियं नश्य प्रमोदं च ) उनको नरक व निर्देचगति आनन्दले ग्रहण करती है (कुपात्रदान फलं सदा ) अपात्र दानका सदा हो ऐसा फल होता है।
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