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भी जाते थे अपूर्व स्वागत पाते थे। धन्यकुमार सेठ पुत्र अकेला उज्जैनीसे राजग्रही में जाता है और वहां पुण्यके बलसे धनका लाभ, स्त्रीका लाभ व राज्यका लाभ तक कर लेता है। पूर्व जन्म में धन्यकुमारके जीवने पात्रदान भक्ति पूर्वक किया था, ऐसा जानकर गृहस्थ श्रावकोंको निरंतर पात्रदान करना चाहिये।
श्लोक-पात्रस्य चिंतनं कृत्वा, तस्य चिनं सुचिंतये ।
चेतयति प्राप्तं वीर्य, पात्र चिंता सदा बुधैः ।। २८३ ॥ अन्वयार्थ (पात्रस्य चिंतनं कृत्वा) जो श्रावक गृहस्थ निरंतर चित्तमें पात्रोंके लाभकी चिंता किया करता है (तस्य चित्तं चिंतये) उसका मन सदा शुभ भावों में लीन रहता है (चेतयति प्राप्तं वीर्य) वह अपने आत्म वीर्यका भले प्रकार उपभोग करता है अर्थात् चिंतित कार्य सिद्ध कर लेता है ( सदा बुधैः पात्र चिंता) इसलिये बुद्धिमानोंको सदा पात्रोंकी चिंता रखना चाहिये ।
विशेषार्थ-जो गृहस्थ निरंतर यह भावना भाता है कि मुझे पात्रोंका लाभ होजावे तो मैं दान है। इस पात्रदानकी भावनासे वह अपनी कषायोंकी शक्तिको ऐसी मंद कर देता है कि उसके चित्तमें सदा ही शुभ कार्योंके करने की भावना रहा करती है । और जिन शुभ कार्यों को वह करना चाहता है उनके करनेका आत्मबल वह अपने में जागृत कर लेता है । आत्मपलके प्रतापसे उसके सर्व ही शुभ कार्य सिद्ध होजाते हैं । यहां ग्रंथकर्ताने पात्रदानकी बड़ी महिमा यताई है सो बिल. कुल ठीक है। दानके भावोंसे, पात्रोंकी भक्तिसे अपूर्व पुण्यकर्मका बंध होजाता है। जैसे हिंसाकर्मी चिंतासे, असत्य भाषणकी चिंतासे, चोरीकी चिंतासे, कुशीलकी चिंतासे, परिग्रहकी चिंतासे निरंतर पापकर्मका बंध होता है वैसे पात्रदानकी चिंतासे जबतक चिंता रहेगी अपूर्व पुण्यकर्मका बंध होता है। दानी गृहस्थको प्रतिदिन पात्रकी चिंता करके प.ब्रोंका समागम मिलाकर दान करके
फिर भोजन करना चाहिये । यदि पात्रका लाभ न मिल तो दु:खित भुक्षितको जिमाकर आप ४जीमना चाहिये । वास्तवमें पात्रदान व करुणादान दोनों के भाव गृहस्थके सदा रहने चाहिये। *दानसे ही गृहीकी शोभा है।
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