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मो.मा प्रकाश
अवस्थाविर्षे किंचित् कषाय घटें सुख मानिए, ताको हित जानिए, तो जहां सर्वथा कषाय || दूर भएं वा कषायके कारण दूरि भएं परम निराकुलता होने करि अनंत सुख पाइए, ऐसी मोनमवस्थाकों कैसें हित न मानिए । बहुरि संसार अवस्थाविर्षे उच्च पदकों पावै, तो भी के तौ विषयसामग्री मिलावनेकी आकुलता होय, के विषयसेवनकी आकुलता होय, कै और कोई ।। क्रोधादि कषातै इच्छा उपजे, ताकौं पूरण करनेकी आकुलता होय, कदाचित् सर्वथा निराकुल होय सकै नाहीं । अभिप्रायविषे तो अनेकप्रकार आचलता बनी ही रहै । अर बाह्य कोई आकुलता मेटनेके उपाय करे, सो प्रथम तो कार्य सिद्ध होय नाहीं । अर जो भवितव्य योगते यह कार्य सिद्ध होय जाय, तो सत्काल और आकुनता मेटनेका उपायविषै लागे । ऐसें आकु| लता मेटनकी आकुलता निरंतर रह्या करै । जो ऐसी आकुलता न रहै, तो नये नये विषय| सेवनादि कार्यनिविर्षे काहेकों प्रवर्ते है । तातै संसार अवस्थाविषे पुण्यका उदयते इंद्र । अहमिंद्रादि पदको पावै, तो भी निराकुलता न होय, दुःखी ही रहै । ताते' संसारअवस्था | हितकारी नाहीं।
बहुरि मोक्ष अवस्थाविषै कोई प्रकारकी आकुलता रहीं नाहीं, तातै आकुलता मेटनेका । | उपाय करनेका भी प्रयोजन नाहीं । सदा काल शांतरसकरि सुखी रहे है । तातै मोक्षअवस्था हो हितकारी है । पूर्व भी संसार अवस्थाका दुखका अर मोच अवस्थाका सुखका विशेष ४७३
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