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मा.मानसिनिकै कोई कारणते कषाय हो है परन्तु किछु कर सकते नाहीं सातै उनका कषाय बाह्य प्रकाश
प्रगट नाहीं हो है वै ही आप दुःखी हो हैं। बहुरि ऐसा जानना जहां कषाय बहुत होय अर शक्तिहीन होय तहां घना दुख हो है बहुरि जैसें कषाय घटता जाय शक्ति बधती जाय तैरों दुःख घटता हो है । सो एकेन्द्रियनिकै कषाय बहुत अर शक्तिहीन तातै एकेन्द्रिय जीव महा दुःखी हैं। उनके दुःख वै ही भोगवै हैं। अर केवली जाने हैं। जैसें सन्निपातीका ज्ञान घटि जाय अर बाह्य शक्तिके हीनपनैः अपना दुःख प्रगट भी न करि सके परन्तु वह महादुखी है, तैसें एकेन्द्रियका ज्ञान थोरा है अर बाह्य शक्तिहीनपनाने अपना दुखकों प्रगट भी न करि सके है परन्तु महादुखी है। बहुरि अन्तरायके तीत्र उदयकरि चाह्या होता नाहीं। ताते भी दुखी ही है । बहुरि अघातिकर्मनिविष विशेषपने पापप्रकृतिका उदय है तहां असातावेदनीयका | उदय होते तिसके निमित्ततै महादुखी हो है। पवन टूटै है। बहुरि वनस्पती है सो शीत | | उष्णकरि सूकि जाय है, जल न मिलै सूकि जाय है, अगनिकरि बले है ताकौं कोऊ छेदै है भेदै है मसले है खाय है तोरै है इत्यादि अवस्था हो है। ऐसे ही यथासंभव पृथ्वी आदिविषे | अवस्था हो है। तिनि अवस्थाकों होते वै महादुखी हो हैं जैसे मनुष्यकै शरीरविणे ऐसी अवस्था भए दुख हो है तैसे ही उनकै. हो है। जाते इनिका जानपना स्पर्शन इन्द्रियतै होइ सो वाके स्पर्शनइंद्रिय है ही, ताकरि उनकों जानि मोहके वशते महाव्याकुल हो है। परंतु