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________________ मो.मा. जनित अचक्षुदर्शन जिनकर शीत उष्णादिकको किंचित् जानै देखे है। ज्ञानावरण दर्शनावरणके तीव्र उदयकरि यातें अधिक ज्ञानदर्शन न पाइए है। अर विषयनिकी इच्छा पाइए है तातें महा दुखी है। बहुरि दर्शनमोहके उदयतें मिथ्यादर्शन हो है तातें पर्यायहींकों आपो श्रद्दहै है। अन्यविचार करनेकी शक्ति ही नाहीं। बहुरि चारित्रमोहके उदयतै तीव्र क्रोधादि कषायरूप परिणमै हैं जाते उनकै केवली भगवानने कृष्ण नील कापोत ए तीन अशुभ लेश्या 18 ही कही हैं। सो ए तीव्र कषाय होते ही हो हैं सो कषाय तो बहुत अर शक्ति सर्वप्रकारकरि महा हीन तातें बहुत दुखी होय रहे हैं । किछू उपाय कर सकते नाहीं । इहां कोऊ कहै-ज्ञान तो किंचित् मात्र ही रह्या है वै कहा कषाय करें ? ताका समाधान जो ऐसा तो नियम है नाहीं जेता ज्ञान होइ तेता ही कषाय होय । ज्ञान तौ क्षयोपशम जेता होय तेता हो है । सो जैसें कोऊ आंधा बहरा पुरुषकै ज्ञान थोरा होते भी बहुत कषाय होते देखिए है तैसें एकेन्द्रियकै ज्ञान थोरा होते भी बहुत कषायका होना माना है । बहुरि बाह्य कषाय प्रगट तब हो है जब कषायकै अनुसार किछु उपाय करें सो वै शक्तिहीन है तातें उपाय करि सकते नाहीं। ताते उनकी कषाय प्रगट नाहीं हो है। जैसे कोऊ पुरुष शक्तिहीन है ताकै कोई कारणते तीब कषाय होइ परंतु किछू करि सकै नाहीं। तातै वाका | कषाय बाह्य प्रगट नाही होय यूं ही अतिदुःखी होइ । तैसें एकेन्द्रिय जीव शक्तिहीन हैं।
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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