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________________ वारणवरण ॥१९६॥ जैसा ज्ञानार्णवमें अध्याय ४० में कहा है सोऽहं सकलवित्सार्वः सिद्धः साध्यो भवच्युतः । परमात्मा परंज्योतिर्विश्वदर्शी निरंजनः ॥ २८ ॥ तदासौ निश्चलोऽमुर्त्ती निष्कलंको जगद्गुरुः । चिन्मात्रो विस्फुरत्युच्चैर्ध्यानध्यातृविवर्जितः ॥ १९ ॥ भावार्थ — जैसे सिद्ध भगवान हैं वैसे मैं हूँ। मैं ही सर्वज्ञ हूं, ज्ञानापेक्षा सर्व व्यापक हैं, सिद्ध स्वरूप हूं, मैं ही साध्य हूं, संसार से रहित हूं, परमात्मा हूं, परं ज्योतिमय हूं, सकलदर्शीीं हूं, मैं ही सर्व अंजनसे रहित निरंजन शुद्ध हूं, ऐसा ध्यान करे तब अपना स्वरूप निश्चल, अमूर्तीक, कलंक रहित, जगत् में श्रेष्ठ, चैतन्य मात्र, ध्यान ध्याताके भेद रहित ऐसा अतिशयरूप प्रकाशमान होता है । टथग्भावमतिक्रम्य तथैक्यं परमात्मनि । प्राप्नोति स मुनिः साक्षाद्यथान्यत्वं न बुध्यते ॥ १० ॥ भावार्थ-तब वह मुनि परमात्मा से अपने आत्माका भिन्नभाव उल्लंघन करके एकपनेको साक्षात् प्राप्त होजाता है, ऐसा कि वहां भिन्नपनेका बिलकुल भान नहीं रहता है । अर्थात् स्वयं परमात्मभाव में तन्मय होजाता है। मैं एक केवल शुद्ध आत्मा हूं, ऐसा ध्यान करते हुए परम अद्वैत स्वानुभवमें स्थिर होजाता है । यह परमानन्दमई रूपातीत ध्यानका स्वरूप है । सम्यग्दर्शन महात्म्य | श्लोक – प्रतिपूर्ण शुद्ध धर्मस्य, अशुद्ध मिथ्यातिक्तयं । शुद्ध सम्यक् संशुद्धं, सार्थं सम्यग्दृष्टितं ॥ १९० ॥ अन्वयार्थ – (शुद्ध धर्मस्य प्रतिपूर्ण ) शुद्ध धर्म से जो भरा हुआ है । (अशुद्ध मिथ्यातिकयं ) अशुद्ध व मिथ्याभाव से जो रहित है ( सार्थ सम्यग्दष्टितं ) जहां आत्म पदार्थको यथार्थ स्वरूप सहित भलेप्रकार अनुभव किया जाता है वही ( संशुद्धं शुद्ध सम्यक्त ) परम शुद्ध क्षायिक सम्यग्दर्शन है । विशेषार्थ – यहां भाव निक्षेपसे सम्यग्दर्शनका स्वरूप है। जहां शुद्ध आत्माके शुद्ध व पूर्ण स्वभावका अनुभव किया जाता है। जहां न तो किसी प्रकारकी अशुद्धता है न कोई मिथ्यात्वका भाव है । शुद्ध आत्माका सम्पक् प्रकार मानो दर्शन जहां होरहा है, परम रुचि सहित आत्मामें श्रावकाचार 12021
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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