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सारणवरण
श्रावका
॥१९७॥
भाप तन्मय है। यही भाव शुद्ध व क्षायिक सम्यग्दर्शन है। निश्चयसे विचारा जावे तो यह आत्मा स्वयं जव सर्व विकल्पोंसे रहित होता है, आप आपमें थिर होता है, स्वसंवेदन ज्ञानमय या स्वानुभव रूप होता है तब वहां रत्नत्रयकी एकतारूप साक्षात् मोक्षमार्ग है । वहा शुद्धात्माकी रूचि भी है, उसीका ज्ञान भी है, उसीका चारित्र भी है। उसीको शुद्ध सम्यग्दर्शन, उसीको शुद्ध सम्यग्ज्ञान व उसीको शुद्ध सम्यग्चारित्र कह सकते हैं। वास्तव में वह तीनोंका अखण्ड पिंड एकीभावरूप मोक्षमार्ग है। ऐसा ही अमृतचन्द्राचार्य तत्वार्थसारमें कहते हैं
आत्मा ज्ञातृतथा ज्ञानं सम्यक्तं चरितं हि सः । स्वस्यो दशनचारित्रमोहाभ्यामनुपप्लतः ॥ ७॥
पश्यति स्वस्वरूपं यो मानाति च चरत्यपि । दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव स स्मृतः ॥ ८-८॥
भावार्थ-आत्मा ही जाना गया ज्ञान है, वही जब दर्शनमोह और चारित्रमोहके मैलसे प्रवाधित है तब सम्यग्दर्शन है और सम्यक्चारित्र है । जो अपने ही स्वरूपका अडान, ज्ञान व चरण करता है ऐसा आत्मा ही दर्शन ज्ञान चारित्रमई कहा गया है। वास्तवमें शुद्ध सम्यक्त आत्माका ही एक अमिट अखंड गुण है।
श्लोक–देवगुरुधर्मशुद्धस्य, सार्थ ज्ञानमयं ध्रुवं ।
मिथ्या त्रिति विनिर्मुक्तं सम्यक्तं सार्थ ध्रुवं ॥ १९१ ॥ अन्वयार्थ-(देव गुरु धर्मशुद्धस्य) शुद्ध देव, शुद्ध गुरु, व शुद्ध धर्मका (सार्य) अर्थ सहित (ज्ञानमय) ज्ञानमय (ध्रुव) निश्चल अडान (मिथ्या त्रिति विनिर्मुक्त) तीन मिथ्यावसे रहित (सार्थ ध्रुवं सम्यक्त) अर्थ सहित निश्चल सम्यग्दर्शन है।
विशेषार्थ-यहां बताया है कि जिसको शुद्धास्माका अनुभव सम्यग्दर्शन प्राप्त है उसे निदोष देव, गुरु, धर्मकी भी श्रद्धा है। वह श्रखा ज्ञानमई अटल है। इसका भाव यह है कि वह सम्पत्ती व्यवहारनयसे तो श्री अरहंत व सिद्ध भगवानको अपना पूज्य देव व निग्रंथ आचार्य, उपाध्याय व साधुको अपना पूज्य गुरु व रत्नत्रयमई धर्मको पूज्य धर्म मानता है, निश्चयसे अपने ही शुद्धात्माको देव, खसीको गुरु व उसीकी परिणतिको धर्म जानता है। अथवा अरईत मिडमें जो ज्ञान स्वरूप निश्चल आत्मद्रव्य है उसीको शुद्ध देव मानता है तथा आचार्य उपाध्याय साधुमें जो उनका शुद्धात्मा
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