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श्रावन
चर
कारणवरण
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आस्माके स्वाभाविक शुद्ध स्वरूप पर आजावे । इसतरह रूपस्थ ध्यानके द्वारा निश्चय धर्मध्यान करे। V अर्थात आत्मानुभवका आनन्द लेवे। श्रुतज्ञानके भाधारसे अरइंतका व अरहंतकी शुद्ध आत्माका स्वरूप विचार करे। श्लोक-रूपातीत व्यक्त रूपेन, निरंजन ज्ञानमयं ध्रुवं ।
मतिश्रुतअवधिं दिष्टं, मनपये केवलं ध्रुवं ।। १८८॥ अनंत दर्शनं ज्ञानं, वीर्यानंत सौख्ययं ।
सर्वज्ञ शुद्ध द्रव्याथ, शुद्धं सम्यक् दर्शनं ॥ १८९ ॥ अन्वयार्थ-रूपातीत ) रूपातीत ध्यान (व्यक्तरूपण) प्रगट रूपसे (निरंजन ) कर्म मैलसे रहित (ज्ञानमयं ध्रुवं ) ज्ञान स्वरूप अविनाशी आत्मा होता है जहां (मतिश्रत अववि मनपर्ये केवलं ध्रुवं दिष्टं) मति, श्रुत, अवधि, मनापर्यय तथा केवलज्ञान ये पांचों ही एक रूप नित्य दिखलाई पड़ते हैं (अनंत दर्शनं ज्ञानं वीर्यानंत सौख्यय) अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत वीर्य व अनंत सुखमई है (सर्वसँ) सर्वज्ञ हैं (शुद्ध द्रव्या) शुद्ध भास्म पदार्थ है (शुद्धं सम्यक् दर्शनं ) यही शुद्ध सम्यग्दर्शन है।
विशेषार्थ-रूपातीत ध्यानमें पहले तो मूर्तीक रूप रहित सिद्ध भगवानके गुणोंका विचार करके ध्यान करे फिर सिर समान अपने आत्माका यथार्थ स्वरूप निश्चय नयसे ध्यानमें लेकर ध्यावे अर्थात् परमात्मा और अपने आत्माका भेदभाव मिटाकर अपने आत्मामें एक होजावे। श्री सिद्ध भगवान रूपातीत हैं, प्रगट रूपसे आठ कर्मरूपी अंजनसे रहित है, ज्ञानाकार हैं, अविनाशी हैं, उनमें मतिश्चत आदि पांच ज्ञानोंक विकल्प नहीं हैं। एक शुद्ध ज्ञानई हैं जो ज्ञान सदा ध्रुव रहता है। अनंतदर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख, अनंत वीर्य इन चार अनंत चतुष्टय सहित हैं। वे ही सर्वज्ञ है, शुद्ध आत्मद्रव्य हैं, शुद्ध सम्यग्दर्शन स्वरूप है। अर्थात् जहां क्षायिक सम्यग्दर्शन परम शुद्ध प्रकाशमान है। वे सिद्ध लोकाग्र पुरुषाकार ध्यानमय आत्मानन्दमें मगन परमानंद स्वरूप स्वात्मा. मृतका पान करते हुए निश्चल स्फटिककी मूर्तिके समान शोभायमान हैं, ऐसा ध्यानमें लेकर उनका चितवन करता हुआ अपने आत्मामें आजावे व शुद्ध निश्चयनयसे अपने आपको सिरवत् ध्यावे।
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