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तारणतरण ॥ १९४ ॥
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हैं, जो रत्नमय सिंहासनपर चार अंगुल ऊंचे शोभायमान हैं, जिनकी दिव्यध्वनि से धर्मामृतकी वर्षा होती है । जिनके शरीरकी आभाका मंडल तारों तरफ छाया हुआ है, जिसकी दोति सूर्य चंद्रमाको जीतनेवाली है, रत्नत्रय स्वरूप तीन छत्र जिनके ऊपर शोभायमान हैं। इसकी पंक्ति के समान उज्वल चमरोंके समूह दोनों तरफ दुर रहे हैं, दिव्य पुष्पोंकी वृष्टि होरही है, देवों द्वारा दुंदुभि बाजे बज रहे हैं, भगवानके पीछे अशोक वृक्ष शोभायमान है । इस तरह आठ प्रातिहायोंके द्वारा भगवान शोभनीक हैं । जिनकी आत्मामें नौ केवल लब्धियां विराजित हैं । अर्थात् १ अनंतज्ञान, २ अनंतदर्शन, ३ अनंतदान ४ अनंतलाभ, ५ अनंत भोग, ६ अनंत उपभोग, ७ अनंत वीर्य, ८ क्षाधिक सम्पक्त, ९ क्षायिक चारित्र । जो अर्हत भगवान समतारसमें या परम अद्वैतभाव में मग्न हैं, परम योगीश्वर हैं, परम वीर हैं, क्षुधा, तृषा आदि अठारह दोषोंसे रहित हैं, परम दयालु, सर्व प्राणीमात्र के रक्षक, परम शांत, शुद्धात्मीक परिणतिमें तल्लीन हैं ।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य नियमसारमें अर्हतका स्वरूप कहते हैं
क्षुतण्डभीरुरोसो, रागो मोहो चिंता जरा रुजा मिद्धू । स्वेदं खेद मदो रइ विह्नियणिद्दा जणुव्वेगो ॥ ६ ॥ णिस्सेस दोसर हिलो, केवलणाणाइपरम विभवजुदो । परमप्पा उच्चर, तव्विवरीओ ण परमप्पा ॥ ७ ॥
भावार्थ- जो अईत भगवान क्षुधा, तृषा, भय, क्रोध, राग, मोह, चिंता, जरा, रोग, मरण, पसीना, खेद, मद, रति, आश्चर्य, निद्रा, जन्म, आकुलता ऐसे अठारहको लेकर अन्य सर्व दोषोंसे रहित हैं, केवलज्ञानादि विभव सहित हैं, यही पूजने योग्य अईत् परमात्मा हैं, इसके विपरीत कोई देव परमात्मा नहीं है । ऐसे अर्हतको सर्वांग शुद्ध चिद्रूपमय शुद्ध आत्मतत्वमें स्थित ही मंत्र द्वारा विचारना चाहिये अर्थात् ह्रींमें २४ तीर्थंकर गर्भित हैं, ह्रीं मंत्र को कहते हुए भी हम अरहंतका स्वरूप विचार सके हैं जिससे उपयोग और तरफ नहीं जावे, तथा के मंत्र को भी कहते हुए विचार सते हैं । ॐ के ऊपर जो अर्धचंद्राकार है वह सिद्धक्षेत्रका नमूना है । वहां उत्कृष्ट सिद्ध भगवान निश्चल विराजते हैं । वैसा ही शुद्ध आत्मा अतके भीतर है। चार अघातिया कर्म मात्र पुद्गलमध रजतुल्य हैं । उनके भीतर सिद्धवत् शुद्धात्मा विराजित हैं, ध्यान करनेवाला मिथ्यात्वभाव व सांसारिक भोगादिका सर्व राग स्यागकर ध्रुव व निर्मल अईनकी शुद्धात्मा पर लक्ष्य देवे । फिर अपने ही
श्रावकाचार
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