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प्रकाश
मो.मा.
चातुर्मास्ये तु सम्प्राप्ते रात्रिभोज्यं करोति यः ।
तस्य शुद्धिर्न विद्युत चान्द्रायणशतैरपि ॥३॥ इनविर्षे मद्यमांसादिकका वा रात्रिभोजनका वा चौमासे में विशेषपर्ने रात्रिभोजनका वा || | कंदभक्षणका निषेध किया । बहुरि बड़े पुरुषनिकै मद्यमांसादिकका सेवन करना कहें, व्रतादि-|| विषै रात्रिभोजन था वा कन्दादिभक्षण था, ऐसे बिरुद्ध निरूपै हैं। ऐसे ही अनेक पूर्वापर विरुद्ध वचन अन्यमतके शास्त्रनिविर्षे हैं। सो करें कहा, कहीं तो पूर्वपरंपरा जानि विश्वास अनावनेके अर्थि यथार्थ कह्या भर कहीं विषयकषाय पोषनेके अर्थि अन्यथा कह्या। सो जहां | पूर्वापरविरोध होय, तिनका वचन प्रमाण कैसे करिए। तहां जो अन्यमतनिविर्षे क्षमा शील
संतोषादिककों पोषते वचन हैं, सो तो जैन मतविषै पाइए हैं भर विपरीत वचन हैं, सो उनके । कल्पित हैं । जिनमत अनुसार वचनका विश्वासतें उनका विपरीतवचनका श्रद्धानादिक होय |
जा, तातें अन्यमतका कोऊ अंग भला देखिकर भी तहां श्रद्धानादिक न करना । जैसें | विषमिलित भोजन हितकारी नाहीं तैसें जानना । बहुरि जो कोई उत्तमधर्मका अंग जिनमत। विर्षे न पाईए भर अन्यमतविर्षे पाईए, अथवा कोई निषिद्ध धर्मका अंग जैनमतविषै पाईए । अर अन्यत्र न पाईए, तो अन्यमतको आदरो सो सर्वथा होय नाहीं । जाते सर्वज्ञका ज्ञानते किछ
छिपा नाहीं है । तातै अन्यमतनिका श्रद्धानादिक छोरि जिनमत का दृढ़ श्रद्धानादिक करना ।