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फलेगा। यदि जड़ नहीं है तो वृक्ष कभी लग नहीं सका। क्योंकि जड़के बारा वृक्षका पोषण होता भारणतरण
है। इसी तरह यदि सम्यग्दर्शन नहीं है तो कठिन तप करते हुए उपवास करना, कम खाना, रस छोडना, अटपटी आखडी लेकर भोजनको जाना, रखा सूखा खाना, मासोपवासी, पक्षोपवासी रहना, कठिन २ स्थानोंपर जाकर तप करना, एकांत सेवना, घंटों ध्यान लगाना इत्यादि सर्व तपस्या सार रहित है।न तो आत्मानंद दाता है न स्वानुभव रूप हैन कर्मनाशक हैन मोक्षमार्ग है, मात्र
कायक्लेश रूप है। भले ही पुण्य कर्मका पन्ध होजावे परन्तु संसारके जालको यह तप काट नहीं y सका। इसी तरह मुनिके महाव्रत, श्रावकके अणुव्रत व इंद्रियदमन व प्राणिरक्षा आदि सर्व ही , व्यवहार धर्म पूजा, पाठ, जप, सामायिक, स्वाध्याय, शुद्धाहार, नीतिसे वर्तन, सत्यवादीपना,
चोरी न करना, ब्रह्मचर्य पालन, करुणाका व्यवहार, चार प्रकार दानका देना, साधु सेवा, जनताका उपकार आदि क्रिया मात्र पुण्य बंधकारक है। सम्यग्दर्शनके विना मोक्षमार्ग नहीं है। जहां सम्यक्त होता है वहां मात्र आत्मोन्नतिके हेतुसे, वैराग्यभाषसे, परिणामोंकी शुद्धताके लिये ही सर्व व्यवहार क्रिया तप आदि किया जाता है तब ये तपादि परिणामोंको शुद्धास्मानुभवमें लगाने के लिये विशेष महकासी होजाता है। जहां प्रात्माके अनुभवकी कला नहीं आई है वहां ये सब तपादि किसी अंतरंगमें छिपी हुई कषायके देतुमे ही किया जाता है। चाहे वह मान बडाईकी चाह हो, चाहे विषा भोगांकी चाह हो, चाहे घरके कष्टोंसे दुखित होकर किया जाता हो, चाहे किसी मायाचारसे हो। क्रोध, मान, माया, लोभ इनमें से किसी कषायकी पुष्टिके हेतुसे किया गया तपादि उस कषागको कैसे नाश कर सका है जिसके नाशके लिये तपादि करनेका प्रयोजन है। इसलिये प्रथम सम्यग्दर्शनकी जड होनी चाहिये नव ही धर्मका वृक्ष लग सकेगा। ____ श्लोक-सम्यक्तं यस्य मूलस्य, साहा व्रत नन्तनंताई।
अवरे वि गुणा होति, सम्यक्तं हृदये यस्य ॥ २०९॥ अन्वयार्थ-(सम्यक्तं यस्य मूलस्य ) जिसके सम्यग्दर्शनरूपी जड है(माहा) शाखाएं (व्रत नन्तनन्ताई) बतरूपी अनन्तानन्त होसकी है (अवरे वि गुणा होति) और भी बहुत गुण होते हैं (यस्य हृदये सम्यक्त) जिसके अन्तरंगमें सम्यक है।
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