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श्रावकार
वारणतरण ॥२१॥
विशेषार्थ-जहां सम्यग्दर्शन है वहां परिणामोंकी अनन्तगुणी विशुद्धता बढ़ती जाती है। कषायकी मंदताके साथ साथ विशुद्धता च वीतरागताके अनन्त अंश बढते जाते हैं। वे ही व्रतोंकी शाखाएं फूटना है। सम्यक्तीके भाव जहां चढ़ते जाते हैं वह स्वयं अहिंसक होता जाता है। सत्यपादी, न्याय मार्गी, ब्रह्मचर्य रक्षक, संतोषी, संयमी होता हुआ चला जाता है। सम्यक्तके प्रभावसे सर्व बाहरी आचरण स्वयं ही उत्तम प्रकारसे होता जाता है। रस सहित आनन्दरूप सर्व व्रत तप आदि होने लगता है। जहां भीतर शुद्ध आत्माके अनुभवकी चतुराई मौजूद है वहां अनेक गुण होते हैं । वह कमाका फल सुख तथा दुःख अत्यन्त समता भावसे भोगता है। उसके कर्मफल देकर झड़ जाते हैन घोर बंध अत्यन्त अल्प करता है जो भी शीघ्र छुट जानेवाला है। सम्यक्तीके कर्मकी निर्जरा अधिक होती है बंध थोडा होता है। इसीलिये वह मोक्षमार्गी है। सम्यक्ती सदा संतोषी या सुखी रहता है। यदि आपत्तियें आजावें तो घबडाता नहीं। यदि सम्पत्ति होतो उन्मत्त नहीं होना है। वह ज्ञाता दृष्टा समदर्शी रहता है। उसका लक्ष्य एक आत्माकी तरफ रहता है, उसके व्यवहारसे किसीको पीडा नहीं होती है, वह जगतका महान उपकारी होता है, वह जगतको
अपना कुटुम्ब समझता है। सम्यक्तके प्रभावसे क्या क्या गुण प्रगट होते हैं यह कथन में नहीं । आसक्ता है। सम्यक्तकी जड़ अपूर्व वृक्षको फलती है, जिसका अंतिम फल परमात्मा होजाना है।
श्लोक-सम्यक्त विना जीवो जाने, श्रुत्यंग बहुभेदं ।
अन्ये यं व्रतचरणं, मिथ्यातप वाटिकाजालं ॥ २१०॥ अन्वयार्थ-(सम्यक्त विना जीवो ) सम्यग्दर्शनके विना जीव (श्रुत्यंग बहुभेदं जानै ) ग्यारह अंग नौ पूर्वतक बहु प्रकार शास्त्रको जाने अथवा (अन्ये यं वाचरणं) अन्य जो कोई बहुत व्रतादिका आचरण करे सो सब (मिथ्या तप वाटिका माल) मिथ्या तपका निवास रूपी जाल है।
विशेषार्थ-सम्यग्दर्शन एक अति सूक्ष्म आत्माका शुद्ध अनुभवन रूपी भाव है। जिसको इस सुक्ष्म तत्वका लाभ नहीं हुआ वह मुनि होकर ग्यारह अंग नौ पूर्व तक पढ लेवे अथवा अन्य कोई साधु बहुत प्रकार व्यवहार चारित्र पाले वह सब ज्ञान तथा चारित्र ऐसा बगीचा लगाना नहीं है जो सच्चा हो व जो मोक्षरूपी फल को देवे। किन्तु वह मिथ्या उपवनका जाल है। वह मिथ्या तप
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