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श्रावकार
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है,कुनप है। अज्ञानी उसी जालमें मोहित हो अपना संसार बढाने के लिये ही प्रयत्न करता है न
कि संसार हटाने के लिये। उसका ज्ञान व चारित्रका बाग मिथ्यास्तके आतापसे दूषित है जैसे वनमें ॐ अग्नि लग जाये तो सब वृक्ष भस्म होजावे इसी तरह मिगसकी अग्रिसे ज्ञान व चारित्रका बाग पढने की अपेक्षा भस्व ही होजायगा। इसलिये सम्यग्दर्शन के सिवाय और कोई आत्मोपकारी नहीं है।
श्लोक-शुद्धं सम्यक्त उक्तं च, रत्नत्रय संजुतं ।
शुद्ध तत्वं च साधं च, सम्यक्तं मुक्ति गामिनो॥२११॥ मन्वयार्थ-(शुद्धं सम्यक्त । शुद्ध सम्यग्दर्शन (रत्नत्रय संजुतं) सत्नत्रय सहित (च शुद्धतखं सार्थ च) और शुद्ध आत्मीक तत्व सहित ( उक्तं च) कहा गया है। ऐसा सम्यक्त (मुक्ति गामिनो) मोक्षगामी जीवके होता है।
विशेषार्थ-सम्यग्दर्शन जहां है वहां रत्नत्रय तीनों हैं क्योंकि सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति होते ही जितना ज्ञान है वह सम्यग्ज्ञान होजाता है और सम्यग्दर्शनके साथ ही अनंतानुबंधी कषायोंके उपशम होनेसे स्वरूपाचरण चारित्र पैदा हो जाता है। यदि सम्यग्दर्शनके साथ तीनों ही न हो तो सम्यग्दर्शनको मोक्षमार्ग नहीं कह सक्ते। ऐसा सम्यग्दर्शन वास्तव में शुद्ध आत्मीक तत्वके अनुभवके साथ साथ होता है। जिसको यह निश्चय सम्यक्त होजाता है वह अवश्य मोक्ष पहुंच जाता है। सम्यग्दर्शनमें आत्मानुभवमें कोई अंतर नहीं है। लब्धिरूप सम्यग्दर्शन तो अन्य कार्यकी तरफ उपयोग रखते हुए भी रहता है परन्तु उपयोगात्मक सम्यक्त तब ही होता है जब आत्मानुभूति जागृत होती है तब वहां कोई संकल्प विकल्प नहीं रहता है। ऐसी दशामें ही रत्नत्रयकी एकता कही जाती है। ऐसा ही देवसेनाचार्य तत्वसारमें कहते हैं
सयल वियप्पे थक्कइ उन्वज्जइ कोवि सासओ मावो । जो अप्पणो सहावो मोक्खस्सय कारणं सोहे ॥ ८६॥
भावार्थ-सर्व विकल्पोंके बंद होजानेपर ऐसा कोई अविनाशी निश्चल भाव पैदा होता है जो * वास्तवमें आत्माका स्वभाव है तथा वही मोक्षका कारण है । वहां रत्नत्रय तीनों मौजूद हैं।
श्लोक-सम्यक्तं यस्य त्यक्तं च, अनेक विभ्रम ये रताः ।
V॥२१५॥