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________________ मो.मा. प्रकाश ताकरि वस्तुस्वरूपकी यथार्थ प्रतीति न होय सकै है अन्यथा प्रतीति हो है । बहुरि तिस मिथ्यादर्शनही निमित्ततें क्षयोपशमरूपज्ञान है सो अज्ञान हो रहा है । ताकरि यथार्थ वस्तुस्वरूपका जानना न हो है अन्यथा जानना हो है । बहुरि चरित्रमोहके उदयतें भया कषायभाव ताका नाम असंयम है ताकरि जैसा वस्तुका स्वरूप है तैसा नाहीं प्रवर्त्ते है । ऐसें ये मिथ्यादर्शनादिक हैं तेई सर्व दुःखनिका मूलकारन हैं । कैसें सो दिखाइए है - मिथ्यादर्शनादिककर जीवकै स्वपरविवेक नाहीं होय सकै है एक आप आत्मा र अनन्त पुद्गलपरमाणुमय शरीर इनिका संयोगरूप मनुष्यादिपर्याय निपजै है तिस पर्यायहीकों आप माने है । बहुरि आत्माका ज्ञानदर्शनादि स्वभाव है ताकरि किंचित् जानना देखना हो है । अकर्मउपाधित भए क्रोधादिकभाव तिनिरूप परिणाम पाइए है । बहुरि शरीरका स्पर्श रस गंध व स्वभाव है सो प्रगट है अर स्थूल कृषादिक होना वा स्पर्शादिकका पलटना इत्यादि अनेक | अवस्था हो हैं । इन सबनिकों अपना स्वरूप जाने है । तहां ज्ञानदर्शनकी प्रवृत्ति इन्द्रिय मनके द्वारा हो है तातें यह माने है त्वचा जीभ नासिका नेत्र कान मन ए मेरे अंग हैं । इनक | मैं देखों जानों हों ऐसी मानितें इन्द्रियनिविषै प्रीति पाइए है । बहुरि मोहके इन्द्रियनिकै द्वारा विषय ग्रहणकरनेकी इच्छा हो है । बहुरि तिनिविषै इनिका ग्रहण भए ति | इच्छाके मिटनेंतें निराकुल हो है तब आनन्द माने है । जैसे कूकरा हा चाबै ताकर अपना 0000000000 ६८
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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