SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 487
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मो. मा प्रकाश साधने का ही साधन रहै अर श्रोतानितें वक्ताका पद ऊंचा है परंतु वक्ता लोभी होय तौ वक्ता आधीन हो जाय, श्रोता ऊंचे होंय । बहुरि वक्ता कैसा चाहिये जाकै ती क्रोध मान न होय जातै तीव्र क्रोधी मानीकी निंदा होय, श्रोता तिसतैं डरते रहैं तब तिसतें अपना हित कैसे करे | बहुरि वक्ता कैसा चाहिए जो आप ही नाना प्रश्न उठाय आप ही उत्तर करै अथवा अन्य जीव अनेक प्रकारकरि बहुत विचारि प्रश्न करें तो भिष्टवचनकरि जैसे उनका संदेह दूरि होय तैसें समाधान करें । जातें जो आपके उत्तर देनेकी सामर्थ्य न होय तौ या कहै याका मोकौं ज्ञान नाहीं जातें जो ऐसा न होय तौ श्रोतानिका संदेह दूरि न होय तब कल्याण कैसे हो अर जिनमतकी प्रभावना होय सकै नाहीं । बहुरि वक्ता कैसा चाहिये जाकै अनीतिरूप लोकनिंद्य कार्यनिकी प्रवृत्ति न होय जातै लोकनिंद्य कार्यनिकरि हास्यका स्थान होय जाय तब ताका वचन कौन प्रमाण करें, जिनधर्मकों लजावै । बहुरि वक्ता कैसा चाहिये जाका कुल हीन न होय अंगहीन न होय स्वरभंग न होय मिष्टवचन होय प्रभुत्व होय तातैं लोकविषै मान्य होय, जातैं ऐसा न होय तो ताक वक्तापनाकी महंतता सोभै नाहीं ऐसा वक्ता होय । वक्ताविषै ये गुण तौ अवश्य चाहिये सो ही आत्मानुशासनविषै कला है— प्राज्ञः प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदयः, प्रव्यक्तलोकस्थितिः 12504002/C00000 २३
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy